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( ७५४ ) पहियोंके साथ खरतर गच्छवालोंसे विशेष ध्वेष बुद्धि होनेके कारण तो बन गये सोही दिखाता हूँ।
देखो जब पहिलेसे श्रीजिनेश्वरसूरिजीने प्रगटपने राज्य सभा में चैत्यवासियोंका पराभव किया, और शुद्ध क्रिया पूर्वक अणहिलपुर पहणमें संयमियोंका विहार खुला कराया तबसेही वसतिवासी (खरतर) कहलाने लगे उससे चैत्यवासियोंका कपट क्रियाका भेद खुला होने लगा, जिससे वे लोग संयमियोंसे विरोध भाव रखने लगे, इसके बाद श्रीनवाडीवत्तिकारक श्री अभयदेवमूरिजीमहाराजने भी चैत्यवासी वगैरहों की शिथिलता और उत्सूत्रता श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध वर्तावको मागमअठोत्तरी" नामा ग्रन्थ में, चैत्यवासियोंका प्रगट नाम न लेते हुए गुप्त नाम से (मोगम) खूब खण्डन किया परन्तु प्रगट नाम न लेने के कारण इन महाराजसे चैत्यवासियोंने इतना विशेष विरोध न किया, परन्तु इन्हीं महाराजके शिष्य श्रीजिनवल्लभसूरिजीने तो चैत्यवासियोंका प्रगट नाम लेकर देश देशान्तरों में खूब जोर शोरसे खण्डन किया तथा उस विषय सम्बन्धी 'सडपट्टक' वगैरह अन्य भी बनाये, और कठोर (कठिन ) क्रिया तथा विद्वत्ता हिम्मत और चमत्कारोंसे बहुत भद्रजीवोंको चैत्यवासियोंकी अन्ध परम्परा और अविधिकी मायाजालसे छोड़ाके शुद्ध मार्गमें लाये, उसीसे इन महाराजसे खरतर वसतिवासी सुविहित नाम की बहुत प्रसिद्धि हुई है और चैत्यवासियोंसे बहुत विरोध भाव हो गया सो भी छपा हुआ 'सङ्घपहक'के देखनेसे मालूम हो जावेगा, परन्तु इन महाराजसे खरतरकी नवीन उत्पत्ति नहीं हुई थी पोंकि खरतरकी उत्पत्ति तो इन महाराजसे पूर्व तीसरी पिढीने पोजिनेश्वरसूरिजी महाराजसे हो गई थी उसका विशेष निर्णय पहिले छप चुका है।
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