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[ ७२९ ] उसकी व्याख्यामें तो शास्त्रार्थ करके चैत्यवासियोंको पराजय करनेका लिखा है परन्तु दुर्लभ राजाने खरतर विरुद दिया ऐसा तो नहीं लिखा तो फिर कैसे माना जावे। ___ समाधाम-भो देवानुप्रिय ! तेरेको पीजैनशास्त्रों के अतीव गहनाशयको गुरुगम्यतासे या अनुभवसे मालूम होती तो ऐसी शङ्का कदापि नहीं उठाता क्योंकि जैनशास्त्रों में किसी जगह किसी नय आश्रपि पूर्व कारण रूपकी बातको लिखी होवे वहां सम्बन्धसे उत्तर कार्य रूपकी बातका ऊपरसे अध्याहार करने में आता है और किसी जगह उत्तर रूपर्ने कार्यकी बात लिखी होवे वहां सम्बन्धानुसार पूर्व कारणकी बातका ऊपरसे अध्याहार करने में आता है और किसी जगह थोड़ेसे प्रसङ्ग मात्रका दर्शाव किया होवे वहां सम्बन्ध पूर्वक पूर्व और उत्तरका सब विवरण ऊपरसे करने में आता है। देखो ! जैसे-किसी जगहपर अमुक तीर्थंकर भगवान्के उपदेशसे अमुक राजा दीक्षा लेता भया इतना लिखा होवे तो वहां-तीसरे भवमें तीर्थंकर गौत्र बांधनका, जन्म होनेका, दीक्षा लेनेका, केवल ज्ञान प्राप्त करनेका, प्रामानुग्राम विचरनेका, समवसरणकी रचना होनेका, चौसठ इन्द्रादिकोके आनेका, और रा. जाको वधाई जानेसे भक्ति पूर्वक परिवार सहित बन्दनाको जानेका, भगवानके देशना देनेका, देशना सुनकर वैराग्य उत्पन्न होनेका, दिक्षा लेनेका, और शास्त्रार्थका अध्ययन करनेका, निरतिचार संयम पालनेका, यावत् तपश्चर्यादि पूर्वक आयु पूर्ण करके मोक्षगमन पर्यन्तका सब वृत्तान्त सम्बन्ध पूर्वक कहा जासकता है।
तथा दूसरा और भी सुना जैसे किसी जगह अमुक राजाने अमुक पूरिजीको शास्त्रार्थके लिये बुलाये सिर्फ इतनाही
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