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क्योंकि चौथे आरेमें जैनपञ्चाङ्ग की रीति मुजब युगका ३१ वा महिना अर्थात् तीसरा अभिवर्द्धितसंवत्सर में आषाढ़ सुदी ६ के दिन सूर्यके उदय में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र था सो सूर्योदय से ३२) घटीका पर्यंत व्यतीत होजाने बाद रात्रिको भगवान् के च्यवन समय हस्तनक्षत्र आगया था इसलिये हस्तोत्तरा कहा गया परन्तु सूर्योदय के व्यवहारसे उत्तराफाल्गुनी कहा जाता है इसलिये व्याख्याकारोंने हस्तोत्तराके तात्पर्यार्थसे उत्तराफाल्गुनीके नामसे खुलासा पूर्वक व्याख्या करी है सो 'उत्तराफाल्गुन्यः' इसमें बहुवचन है सो है सो बहुत कल्याणकों की अपेक्षासे दिया गया है, सोही बहुत कल्याणक दिखाते है - प्रथम च्यवन, तथा गर्भापहाररूप दूसरा च्यवन, तीसरा जन्म, चौथा दीक्षा, पांचवा ज्ञान इन पांचों कल्या णोंमे हस्तोत्तरा (उत्तराफाल्गुनी) नक्षत्र समझना और इठा स्वातिनक्षत्र में भगवान्का मोक्ष पधारना हुआ यही श्रीवर्द्धमान स्वामिजीके छ कल्याणक कहे जाते है सो बिवेक बुद्धिसे समझने चाहिये ।
और उपरकी व्याख्याओंके पाठों में श्री वीरप्रभके व्यवनादि छः कल्याणकों की खुलासा पूर्वक व्याख्या करी है जिसमें श्री विनय विजयजीने च्यवनादि छःकल्याणकों के शब्द की जगह पर च्यवनादि छः वस्तु लिखी, तथा उपरकी व्याख्याओं में च्यवन गर्भापहारादिसे केवल पर्यंत पांच कल्याणकों कों उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें कहेहैं उसी जगह परमो विनय विजयजीने च्यवन गर्भापहारादिसै केवल पर्यंत पांच कल्याणकोंके शब्दकी जगह पर पांच स्थान लिखे हैं सो उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में श्रीवीरप्रभुके पांच वस्तु हुइ कहो, या,
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