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[ ४६५ ] व्याख्यासे जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट वाचना पूर्वक श्रीवर्द्धमान स्वामिका चरित्र कथन कियाहै सोही यहां दिखाते हैं कि-तिसकाउके विषे याने-वर्तमान अवसर्पिणीके चौथे
आरेमें, ऐसेही तिस समय के विषे सो समय कालमें विशेष भेद नहीं है और इसमें 'तेणं' शब्द के णं शब्द को प्राकृत शैली मुमब वाक्यालङ्कार, शोभा रूप समझना अथवा सप्तमीके अर्थ में या-आर्षत्वात् तृतीया, अर्थात् चौदह पूर्वधरतके. वलि महाराज की सूत्र रचना होने से तृतीयाका भी अर्थ किया जाता है इसलिये तिसकाल और तिस समयको कहा है सो हेतु भूत करके है ऐसा समझना और 'तत्' 'यत्' इन दोनों शब्दों का पर्वा परमें आने का नित्य नियम है सो 'तत्, शब्दकी तो उपर में व्याख्या होगइ है इसलिये अब यहां 'यत्' शब्दकी व्य ख्या करते ह कि जिसकाल और जिप्त समयको भगवान् श्रीऋषभदेवस्वामि आदि तीर्थंकर महाराजोंने श्रीवर्द्धमान स्वामी के च्यवनादि छ कल्याण कोंके होने का हेत रूप कहा है उमीकाल और उसी समयको यहां भी कहा है सी उसीकाल और उसी समयमें 'समणे भगवं महावीरे' सो श्रमण भगवान् नहावीर,याने सर्वप्रकार के कर्माको क्षय करनेके लिये हमेसा तपश्चर्या करने वाले, तथा सर्व प्रकारके ऐश्वर्यसें युक्त,और भगवान् सो 'भग' शब्दके ज्ञान महात्म्यादि उपरके लोकमे कहे हुये १२ अर्थ गुणयुक्त भगवान् श्रीमहावीरस्वामी सो कर्मरूपी शत्रुओंके विजय करने वाले होनेसे गुण निष्पन्न सार्थक नामके चरम तीर्थंकर हुए हैं इनहीं महा. राजके पांच कल्याणक हस्तोत्ता नक्षत्र में हुए हैं, याने हस्त नक्षत्रहीहै उत्तरमे जिसके ऐसा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र समझना
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