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अब श्रीजिनेश्वर भगवानको आज्ञाके आराधन करनेवाले निष्पक्षपाती सत्यग्राही आत्मार्थी सज्जन पाठक गणको विशेष रूपसे ऊपर की बात में निसंदेह होनेके लिये तथा बहुत काल से विवेकशून्यता की अंधपरम्पराके गड्डरीह प्रवाहकी तरह कदाग्रहियों का मिथ्याभ्रम निवारण करनेके लिये इस अवसर पर मैंरी तरफ से प्रगटपने प्रकाशित करके कहने में आता है, कि श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजने तो उस समय एक चीतोड नगर में रहने वाले चैत्यवासियोंको शास्त्रोके रहस्यको न जानने वाले अज्ञानी ठहराकरके स्कंधास्फालन पूर्वक शास्त्रानुसार छ कल्याणक तथा चैत्यकी विधि और साधुकीशुद्धक्रिया व्यवहार वगैरह बातें सबकेसामने भव्यजीवोंको श्रीजिनाज्ञाकी प्राप्ति केलिये प्रकाशित (प्रगट) करोथी परन्तु मैं तो अधी इस लेख छापे द्वारा सब ग्राम नगर शहरोंमें श्रीतपगच्छके श्रीपज्य, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, पन्यास, गणि, पण्डित, शास्त्रविशारदजैनाचार्य, जैनरत्न, न्यायतीर्थ, न्यायरत्न, जैनधर्मोपदेष्टा, वगैरह पदधर विद्वान् मण्डलीको तथा सामान्यता से सब साधु यति श्रावक-सभा मण्डलादि सबको उद्घोषणारूप सूचना से ( एकदेशीयदृष्टांता से डंके की चोट, नगारा बजवातेहुए ) मालूम कराता हूं, कि प्रथम तोजैसे श्रीपञ्चपरमेष्टिमन्त्रकी ४ चूलिका, श्रीआचारांगजी सूत्रके तथा श्रीदशवेकालिकसूत्र के ऊपर दो दो अध्ययनरूप दो दो चूलिका और लक्ष योजनके सुमेरूपर ४० योजनके शिखरको तथा अन्य हरेक पर्वतों व देवमन्दिरोंके शिखरोंको चूलिकायें कही, तैसेहीचन्द्रसम्बत्सर के १२ महिनो ऊपर तेरहवे अधिक महिनेको भी उत्तम श्रेष्टतारूप चलिकाकी ओपमा देकर उसको जैन शास्त्रों में श्रीअनन्ततीर्थंङ्कर गणधरादि महाराजने गिनतीनें लेनेका कहके ९३ महिनोंका अभिवर्द्धितसम्बत्सर कहा है उसके अनुसार
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