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संबंधी मूल पाठोंको छोड़कर पंचाशकके सब तीर्थंकरों संबंधी सामान्य पाठको भागे किया और उपरोक्त आगमोंके सूत्र पाठोंके अभिप्रायको समझे बिना "अगारामओ अणगारियं पाइए तथा अणंते अणुत्तरे निवाघाए निरावरणे कसिणे पहिपुग्ने कंवलवरणाणदंसणे समुपद इत्यादि विशेषण युक्त तीर्थकर महाराजोंको व्यवन जन्म दीक्षा ज्ञानोत्पत्ति कल्याणकों के पाठका बस्तु भर्थ करके कल्याणक पने रहित ठहरानेका आग्रह किया सो तो धर्मसागरजीका मायाजालमें पड़कर गायके पक्ष पातसे अपनी उत्सूत्रताको मायामे भोले जीवोंको फँसानेके लिये जिनाजानुसार सत्य बातका निषेध करने से आमन्द सागरजीने व्यर्थ ही अपने संसार रद्धिका कारण किया है इस बातका निर्णय तो इस ग्रम्पके पढ़ने वाले तत्वज्ञ जन स्वयं कर लेवेंगे विशेष लिखनेकी कोई जरूरत नहीं है।
भब छ कल्याणको संबंधी समीक्षाके लेखके अन्तमें सत्य प्रहण करने वाले भारमार्थी सज्जनोंसे मेरा यही कहना। कि-शास्त्रोक्त प्रमाणोंसे मोवीरप्रभुके छ कल्याणक सिद्ध करके दिखाये और छ कल्याणक निषेध करने सम्बन्धी वर्तमानिक सब कुयुक्तियोंकी समीक्षा करके सब शंकाओंका समाधान भी कर दिया है इसलिये धर्मसागरजीकी अंध परम्परा वाले वर्तमानमें किसी तरहकी फुयुक्तियें करे तो वे सब शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये।
इति-धर्म सागरोपाध्याय विरचित कल्पकिरणावल्यांषट् कल्याणक निषेध सम्बन्धी लेखस्य श्रीमान् मुमति सागरोपाध्याय स्य लघु शिष्य मणिसागराख्य मुनि कृता समीक्षासंपूर्ण जाता समाप्तति पर्युषण निर्णय ग्रन्थे षट् कल्याणक निर्णयः ॥ भोपयुपण निर्णय नामा ग्रन्थ समाप्तः ॥ मीर रक्त कल्याण मस्तु ।
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