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[ ६४९ ] द्वारा, या-पत्र व्यवहार द्वारा, वा-बड़े शहर में सुप्रसिद्ध अन्य मध्यस्थ पण्डितोंके समक्ष धर्मशास्त्रोंके और सरकारी न्यायालयके नियमों मुजब वादानुवाद करके सत्यासत्यके निर्णय करनेको सामने आवे, नहीं तो अंधपरंपराके झूठे कदाग्रहके हठवादको छोड़कर शास्त्रानुसार सत्यबात ग्रहण करें और दूसरोंको भी ग्रहण करावे जिससे वर्तमानिक विसंवादसे जूदी जूदो प्ररूपणाका कदाग्रहको देखकर भद्रजीव भ्रममें पड़कर पीजिनाज्ञाकी विराधना करते हुए मिथ्यात्वमें गिरते हैं और आपस्का विरोधते कर्म बन्धनके हेतु, शासन्नीनतिके कार्यो में विघ्न और अन्यमतियोंमें हास्यका कारण वगैरह बड़े बड़े भयंकर नुकशान हो रहे हैं उसके निवारणका अनंत लाभको प्राप्त करे यही अपने और दूसरों के श्रेयका कारण है।
शंका-अजी आपने ऊपरमें-छ कल्याणक, अधिक मास, और सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावहीका निषेध करने वाले श्रोतपगच्छके वर्तमानिक समुदायके, श्रीकल्पसूत्र श्रीआवश्यक चूर्णि वगैरह शास्त्रपाठोंको देखने में और सुनने में भी नहीं आनेका लिखा, तथा-ऊपरकी टीकाके पाठमें भी “लोचनपथेऽपि दृष्टिमार्ग आस्तां अतिपथे न व्रजति याति" ऐसा कहके बड़े बड़े विद्वान् चैत्यवासी आचार्यो के-षष्ठ कल्याणक, चैत्यविधि तथा अधिकमास और साधुको शुद्धक्रिया व्यवहार सम्बन्धी श्रीकल्पसूत्रादि शास्त्रों के प्रगट पाठों को देखने में आना तो दूर रहा परन्तु सुनने में भी नहीं आये, ऐसा कहा सो कैसे मानाजावे क्योंकि श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणक सम्बन्धी श्रीकल्पसूत्रका पाठतो श्रीतपगच्छ वाले भी प्राय सब कोई यतिसाधु वगैरह हरवर्षे श्रीपर्युषणापर्व में वांचते हैं तथा सामायिक सम्बन्धी और अधिकमास सम्बन्धी भी श्रीआवश्यक चणि
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