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[ ७०३ ] श्रीवर्द्धमानसूरिके पाट ऊपर श्रीजिनेश्वरसूरि हुए सो, सं० १०७९ में आचार्य पदको प्राप्त होके श्रीबुद्धिसागरसूरिके साथ मरुस्थल देशमें विहार करके क्रमसे गुर्जर देशमें अणहिल्लपुर पणमें गए, वहांदुर्लभ राजाका पुरोहित शिवशर्मा नामें ब्राह्मण जो अपना मामाचा तिसके घरमें गए, वहां शिवशर्मा ब्राह्मण अपने लड़केको वेद पदोंका अर्थ बतला रहाथा, उसमें कितनेक वेद पदोंका उलटा अर्थ बताने लगा, तब गुरु बोले, इस मुजब नहीं है, हम कहैं उस मुजब है, तब सच्चा अर्थ सुनके प्रोहित बोला कि आपको इस माफक वेदके अर्थका जाणपणा किसतरें हुआ, आप संसारी अवस्थाले कौन नगरके अरु किसके पुत्र थे, तब महाराजने कहा कि, हम वणारसी नगरीके, सोम नामें ब्राह्मणके पुत्र हैं, तब शिवशर्मा पुरोहितने पिछानें कि ये तो मेराभाणेज है, ऐसा जाणके बहुत भक्ती मान हुआ, बहुमान पूर्वक अपने मकानमें रक्खे, वहां रहते और भी केई पदार्थों में पुरोहितके दिलमें सन्देहथे सो सर्व दूर किये, तब शिवशर्मा पुरोहित बहुत महाराजका रागी हुआ, तब वहांके चैत्यवासियोंने विचारा कि श्रीजिनेश्वरसूरिके इहां रहनेसे अपना पडदा खुल जायगा, अपनेको कोई न मानेगा, सर्व लोक इनोंके रागी हो जायेंगे, इसमें कोई उपाय करना चाहिये, ऐसा विचारके दुर्लभराजाके पास जायके चगली किया कि दिल्लीसे ग्रन्थ छोटक चोर आये हैं, सो आपके पुरोहितके इहां ठहरे हैं, तब राजा एसा बचन सुनके पुरोहितको बुलाकर पूछने लगा कि तेरे घर चौर आये सुना है, तब पुरोहित बोला कि, मेरे घरमें चौरतो कोई नहीं आए है, परन्तु शुद्धक्रिया पात्र साधु आये हैं जो उनोंको चौर कहते होंगे सो आप चौर
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