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गर्भस्थानात् 'गम्भ'ति' गर्भे गर्भ स्थानांतरे संहृतो नीतो, निर्वृतस्तु स्वाति नक्षत्रे कार्तिकामावास्यामिति ॥
अब देखिये उपरके पोठमें वृत्तिकार महाराजने केवडी के अधिकार में १४ तीर्थंकर महाराजां के कल्याणों को संबंधी जो सूत्र हैं सो सरलता पूर्वक खुलासा कह दिये है, जिसमें विशेष करके श्री ऋषभदेवस्वामि अ दि तीर्थंकर महाराजों में छठे श्रीपद्मप्रभुजी है तो इन्हीं महाराजके च्यवनादि पांच क ल्याणक चित्रानक्षत्र में हुवे हैं सो चित्रानक्षेत्र में उपर के ग्रैवक से, ३१ सागरोपमका देव संम्बन्धी आयुपूर्ण करके वहांसे च्यवे और व्यव करके कौशंदी नगरी के धरनामा राजाकी सुसीमा नामा पहराणीकी कुक्षिमें माघवदी ६ को उत्पन्न हुवे १, और कार्तिक वदी १२ को चित्रानक्षत्र में जन्म लिया २ तथा इसके वाद कार्तिक शुदी १३ के दिन चित्रानक्षत्र में दीक्षाली ३, तथा चैत्रीपर्ण को मित्रानक्षत्र में केवलज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हुवा ४, और मार्गशीर्ष वदी ११ को वा मतांतर करके फाल्गुन वदी ४ को चित्रानक्षत्र में मोक्षहुवा ५, इसही तरह से श्रीपद्मप्रभुजी के पांच कल्याणको की व्याख्या के अनुसार ही उपरोक्त मूलपाठकी तीन गाथाओं में कहे मुजब सबी (१४) तीर्थकर महाराजों के पांच पांच कल्याणकों संबंधी भिन्न भिन्न तिथि माम नक्षत्र पूर्वक खुलासा व्याख्या समझ लेगो सो उपर सूत्र के मूलपाठका भावार्थ में सबो तीर्थंकर महाराजों के नाम कल्याणक नक्षत्र पूर्वक लिखेगये है इस लिये यहां दूसरी वेर नही लिखते है परन्तु चौदहवें सूत्र में इतना विशेष है कि श्री वीरप्रभुके पांच कल्याणक हस्ते त्तरा नक्षत्रमें कहे हैं सो हस्तके उपलक्षित, याने उत्तरा फाल्गुनी
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