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[ १९ पाठ, कर्म रूपी भाव शत्रु का नाम नहीं लिखा और स्थानांग सूत्रके पांचवे स्थानमें बहुत तीर्थंकर महाराजों के च्यवन जन्म दीक्षा और केवल ज्ञान निर्माणके नक्षत्र गिमाये हैं परन्तु उसने कल्याणक शब्द नहीं लिखा तो भी अनादि नियमकी प्रसिद्ध बात होनेसे उन नक्षत्रोंने कल्याणक कहते हैं मानते हैं इसी तरह वीरप्रक्षुके आश्विन बदी १३. को च्यवनमें भी तीन जगतमें उद्योत और सब संसारी जीवोंको सुखकी प्राप्ति अनादि नियमके कारणसे उपरोक्त न्यायानुसार होना और मान लेना स्वयं सिद्ध है। इसलिये आत्मार्थियोंको प्रमाण करना चाहिये इस बातका विशेष निर्णय जपरमें लिखा गया है उससे मात्मा जिन स्वयं समझ लेवेगे
भब सत्य ग्रहण करनेकी अभिलाषा वाले भारमार्थी सज्जन पाठकगणसे मेरा यही कहना है कि-मीतीयंकर गणधर पूर्व परादि पूर्वाचार्य तथा प्राचीन सब कुलगण शाखाके पूर्वाचार्योने और वडगच्छ कवलागच्छ तपगच्छादि गच्छोंके पूर्वाचार्योने मूलसूत्र नियुक्ति भाग्य धूर्णि इत्ति चरित्र प्रकरणादि अनेक शास्त्रोंमें प्रगटपने श्रीबीरममुके छ कल्याणक खुलासा पूर्वक कथन किये हैं और युक्तियोंके अनुसार भी प्रत्यक्ष सिद्ध १सो इस ग्रंथमें शास्त्र प्रमाण यक्ति पूर्वक अपरमें अच्छी तरहसे लिखा गया है इसलिये मीजिनवल्लभरिणी ने छठे कल्याणककी नवीन प्ररुपमा नहीं करी किन्तु इन महाराजके पहिले तीर्थ करादि महाराणोंने खुलासा किया है सो भी ऊपर में लिख दिखाया है उससे मोजिमवल्लभसूरिजीको नवीन प्ररूपाका दुषमा लगाने वाले प्रत्यक्ष मिथ्यावादी ठहरते है मौर खरतर गच्छवाले छ कल्याणक मानते हैं परन्तु अन्यगच्छ काडेमहीं जानते ऐसा भी नहीं क्योंकि जिनाजा माराधक
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