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( ७६४ ) नमें भी त्रिशलामाताके १४ स्वप्न देखने वगैरह सब गुण लक्षणोंका विस्तारसे खुलासा पूर्वक शास्त्रकारोंने कथन किया हुआ होनेपर भी गच्छकदाग्रहके अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके जोरसे धर्मसागरजीने प्रथम च्यवनको कल्याणकपना और दूसरे च्यवनको कल्याण कपणा नहीं ठहरानेके लिये शास्त्र कारोंके कथनका रहस्यको समझे बिना उत्सूत्रों की कुयक्तियों से अपना संसार बढ़नेका भय न रखके भोले जीवों की शुद्धश्रद्धा भ्रष्ट करनेके लिये अनेक तरह के उत्सूत्रोंकी कुयुक्तियोंसे कितनेही कुविकल्प उठाकर लिखे हैं उन सबोंको तत्वज्ञजन तो स्वयंहि व्यर्थ समझ लेवेंगे। तो भी अल्प बुद्धिवाले पाठकगणको फिर भी विशेष निस्सन्देह होने के लिये थोडासा नमूना दिखाता हूं सो देखो। ____ “उसमेणं अरहा कोसलिए पंचउत्तरासाढ़े अभिइ छ? होत्यत्ति सूत्रवत् समणे भगवं महावीरे पचहत्थुत्तरे साइणा छह होत्यत्ति सूत्रं बक्तु युक्तं तथापि सूत्रकाराणां विचित्रगतिरिति नाधृतिविधेया" इस लेख में धर्मसागरजीने गर्भापहारके पाठ को राज्याभिषेकके पाठके समान ठहरा करके अपनी अज्ञानतासे सूत्रकार महाराज पर भी आक्षेप किया और संसार बढ़नेके भयको न करते हुए गर्भापहारके दूसरे च्यवन कल्याणकको निषेध करनेके लिये लिखा सो सबही भद्रजीवोंको उन्मार्गमें गेरने रूप मिथ्यात्वका कारण है क्योंकि ऊपरके लेख में श्रीकल्पसूत्रके श्रीमहावीर स्वामी सम्बन्धी “समणे भगवंमहावीरे पञ्चहत्थुत्तरे" के पाठके समान श्रीजम्बूद्वीप प्राप्तिके श्रीऋषभदेवजी सम्बन्धी “उसमेणं मरहा कोसलीए पञ्च उत्तरा साढ़े" के पाठको भी कपन करना युक्त ठहराया सो नहीं बन सकता क्योंकि कल्पसूत्रके पाठकी तरह जघन्य मध्यम उत्कष्ट वाचना पूर्वक उन्होंके मास पक्ष दिवसका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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