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तो उनके परम्परा वालोंको माननेमें कौन निवारण कर सकता है" इस प्रकार पूर्वपक्ष लिखके उसके उत्तर में धर्म सागर जीने अपनी माया बुसिकी ठगाईसे भोले जीवोंको भरममें गेरनेका कारण किया सो सब अज्ञानता से प्रत्यक्ष मिथ्या और व्यर्थ ही परिश्रम किया है क्योंकि श्रीकालिकाचार्यजीने तो देश कालानुसार राजाके आग्रहसे विशेष लाभ जानकर चतुर्थीका पर्युषणा किया था और श्री जिनवल्लभ सूरिजीने तो कालिकाचार्यजीकी तरह देश कालको देखकर किसीके कहने से गर्भापहारको कल्याणक नहीं ठहराया किन्तु इन महाराजने तो आगमोंके मूल पाठानुसार शास्त्रोक्त रीतिसे गर्भापहार रूप दूसरे व्यवन कल्याणकको आश्विन मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी ( आसोज बदी १३) के दिन आराधन करने का उपदेश दिया था सो गर्भापहार रूप दूसरे च्यवन कल्याणक के मास पक्ष तिथिका वर्णन आचारांग सूत्र कल्पसूत्र तथा इनकी व्याख्यायोंमें और त्रिषष्टशलाका पुरुष चरित्र में आवश्यक व्याख्यायोंमें प्राकृत वीर चरित्रादि अनेक शास्त्रों में कथन किया हैं उसी दिन उसके आराधन सम्बन्धी देव बन्दना दिके लिये कहांसे इन महाराजका कथन आगमानुसार युक्ति युक्त है शास्त्रानुसार बातको कोई प्राणी नहीं जानते होवें तो उनके सामने उन बातका उपदेश देनेमें किसी तरहका हरजा नहीं है इस लिये धर्मसागरजी का ऊपर मुजब पूर्व पक्ष लिखना और उसके उत्तर में अपनी मनो कल्पित कुयुक्तियें लिखना सब व्यर्थ है तथा और भी धर्मसागरजीको धर्म ठगाई की कुयुक्तियोंका विशेष निर्णय इस ग्रंथको पढ़ने वाले विवेकी सत्य ग्राही सज्जन विद्वान्जन स्वयं कर लेवेंगे अब विशेष लिखने की जरूरत नहीं है आगमोक्त छ कल्याणक
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