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और जिस समय तीर्थं कर महाराज देवलोक से व्यव करके मनुष्य क्ष ेत्र अपनी माताको कुक्षिमें आकर उत्पन होते हैं उस समय माता १४ स्वप्न देखे और तीन जगतमें उद्योत तथा सब संसारी जीवोंको क्षण भर सुखकी प्राप्ति होती है और उसी समय तीर्थ कर महाराजके अनन्त पुण्यराशी रूपी हलकारेकी ठोकर से सौधर्म देव लोकर्मे इन्द्रका आसन चडाय मान होता है तब अवधि ज्ञानसे भगवानका अवतरना जानकर हर्षयुक्त 915 पैर भगवान् संबंधि दिशा तरफ सामने जाके विधि पूर्वक नमस्कार याने नमोत्थुणं करे और अपने कुबेर भण्डारीको आदेश देकरके देवताओंके द्वारा तीर्थ कर भगवानके माता पिताके राज्यभुवन में स्वर्ण रत्नादि धनधान्य वगैरहको बृद्धि करावे कुछ राज्यको मागहारको वृद्धि वगैरह होवें पुत्रोत्पत्तिका महोत्सव होवे यह सब तीर्थंकरो संबंधी च्यवन कल्याणक का अनादि नियम है परन्तु जब वीर प्रभु भवान्तरका उपार्जीत मीच गोत्रके उदयसे ऋषभदत्त ब्राह्मण की देवानन्दा ब्राह्मणीकी कुक्षिमें आकर उत्पन्न हुए तब इन्द्रका आशन चलायमान नहीं हुआ क्योंकि जब भगवान देवानन्दाकी कुक्षिमें आकर उत्पन हुए तब देवा मन्दाने १४ स्वप्न देखे सो अपने पतिको कहै उसने उत्तम लक्षण वाला पुत्र होनेको कहा उसको सुनकर " ते सुमिणो सम्मं परिच्छई सम्मं पडिछि ता उसमदत्त माइलेणं सद्धि उरालाई माणुस्सगाई' भोग भोगाई भुंज माणा विहरई" कल्पसूत्र के इस मूल पाठानुसार तथा इसकी व्याख्याओं के और ४ वीर चरित्रोंके अनुसार ऋषभदत्त ब्राह्मणके मुखसे स्वप्नोंका अर्थ सुनकर ऋषभदत्त ब्राह्मण के साथ मनुष्य सम्बन्धी उत्तम प्रकारके संसारी भोग भोगती हुई विचरने लगी, ऐसा उपरोक्त सूत्र पाठ वगैरह
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