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की प्राप्तिको और मोक्षगमनको कल्याणक भी मानते हैं लिखते हैं कथन भी करते हैं इससे तो धर्मसागरजीके कथन करने लिखने मानने के अनुसारही केवल ज्ञानकी प्राप्ति और मोक्षगमन रूप वस्तु सोही कल्याणक अर्थात् वस्तु कल्याणक दोनों का भावार्थ एकही धर्मसागरजी के कथनसे सिद्ध हो गया तो फिर वस्तु करके कल्याणकपनेका निषेध करना सो अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके वा “ममवदने जिद्दानास्ति" की तरह बाल लीलाके सिवाय और क्या कहा जावे। और अब इस प्रकार धर्मसागरजीके अन्धपरम्परा में चलकर वस्तु करके कल्याणकपनेका निषेध करनेवाले गच्छकदाग्रहियोंको भी लज्जित होना चाहिये और अबी भी गच्छाग्रहका मिथ्या पक्षपात छोड़कर श्रीजिनाज्ञानुसार इस ग्रन्थको बांधकर सत्यको अङ्गिकार करना चाहिये ;
तथा फिर यहां पर यह भी विचार करने योग्य बात है किअनादि कालसे सभी तीर्थङ्कर महाराजके ध्यवनादिकों को कल्याणकपना अनन्त तीर्थंङ्कर महाराज कहते आये हैं और अविसंवादी केवली भाषित जैन प्रवचन में श्रीऋषभदेवजी आदि २३ तीर्थङ्कर महाराज श्रीवीरभगवान्के च्यवनादिकोंको वस्तु कहके कल्याणकपने रहित कथन कर देवें ऐसा तो कदापि न हुआ, और न हो सकेगा, इसलिये इससे भी वस्तु कहने से कल्याणकपनेका परमार्थ सिद्ध होता है तिसपर भी धर्मसागर जोने सभी अनन्त तीर्थङ्कर महाराजोंके विरुद्ध होकर यवनादिकोंको वस्तु ठहरा कर कल्याणकपने रहित जनाये सो विवेक शून्यतासे अन्ध परम्परा रूप का ग्रहको भ्रमजाल में गिरने वालोंके सिवाय आत्मार्थी तो कदापिकाल मान्य नहीं करेंगे । बस | इसी तरहसे प्रथम स्यवमवत् गर्भहरण रूप दूसरे ध्यव
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