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( ७६१ ) प्रभुका चरित्र ठहराके छठे गर्भापहारके मूलपाठको उड़ा दिया तो गर्भापहारके मूल पाठके उत्थापन रूप उत्सूत्रताकी तस्कर वृत्ति करके संसार वृद्धिका कारणभूत भद्रजीवोंको अपनी माया जालमें फंसाना उचित नहीं था।
और “पञ्चकल्याणक निबन्ध बन्धुरं श्रीवीर चरित्रं" इस वापसे धर्मसागरजीने श्रीकल्पसूत्रमें कहे हुए श्रीवीरप्रभुके च्यवनादिकोंको कल्याणकत्वपना ठहरा करके फिरभी अभिनिवेशिककी अज्ञानतासे भगवान्के गर्भापहार रूप दूसरे च्यवन कल्याण कत्वपनेका निषेध करने के लिये “योकाल समयी श्रीऋषभादि जिनैः। पीवीरस्य च्यवनादीनां वस्तूनां हेतुतया प्रतिपादितौ न च च्यवनादीनां कल्याणकत्वेन व्याख्यातं" ऐसा लिखकर उसी समय कालको श्रीऋषभदेवजी आदि २३ तीर्थकर महाराजोंने श्रीवीर भगवान्के च्यत्रनादि छ वस्तुओंके हेतु रूप कषन करने का ठहराते हुए च्यवनादिकोंको वस्तु कहके फिर उसी च्यवनादि सबको सर्वथा कल्याणकत्वपने रहित ठहरा दिये। और श्रीदशामुत स्कन्धकी पर्युषणा कल्पचूर्णि कारके पाठका वस्तु कल्याणक एकार्थसम्बन्धी अभिप्रायको समझे बिनाही उसी चूर्णिका थोडासा पाठ लिखकर च्यवनादि छहोंको वस्तु सिद्ध करके कल्याणकत्वपनेका अभावही दिखा दिया सो भी विवेक शून्यतासे गच्छकदाग्रहकी ममत्वरूप अज्ञानताके अन्धकारमें पड़कर शास्त्र कारके विरुद्धार्थ में उत्सूत्र प्ररूपणाके विपाकोंका बोझा सिरपर धारण करते हुए भद्रजीवों को शुद्ध प्रवासे भ्रष्ट करके उन्मार्गके मिथ्यात्वमें गेरनेका और अपनी विद्वत्ताकी हंसी करनेवाला पाही प्रयास किया है क्योंकि वस्तु शब्दका अर्थ प्रसङ्गानुसार कल्याणकपनेका होनेसे श्रीवीरप्रभु के व्यव
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