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भागममें कथन नहीं करनेका कहके आगम में बाधा ठहराया मीर आचाराङ्गजी में 'पचहत्त्तरे' की व्याख्या में (पञ्चसुस्थानेषुगर्भाधान, संहरण, जन्म, दीक्षा, ज्ञानोत्पत्ति लक्षणेषु) इत्यादि यहां पर पांच स्थान कहे परन्तु पांच कल्याणक नहीं कहे ऐसा लिखके 'सन्देहविषौषधी' से विसंवाद दिखाया सो भी पूरण अज्ञानता प्रगट करी है, क्योंकि स्थानाङ्गादि अनेक आगम, नियुक्ति, चूर्णि वृत्ति वगैरह शास्त्रों में छ कल्याणक प्रगटपने कथन किये हैं, इसलिये 'सन्देहविषौषधी' कारका छ कल्याणको सम्बन्धी कथन आगमानुसार होनेसे आगम बाधा कहना प्रत्यक्ष मिथ्या है। और श्रीआचाराङ्गजी सूत्रकी दूसरी चूलिकाको आदिमे वीरचरित्राधिकारे कल्पसूत्रकी तरह ही “पञ्चहत्थुत्तरे” तथा “साइणा परिनिबुडे" कहके च्यवन, गर्भहरण, जन्मादि प्रगटपने छही कल्याणक दिखाये हैं और टीका कारने च्यवन गर्भहरण जन्मादिकोंको स्थान कहे सो स्थान कहो अथवा कल्याणक कहो दोनों एकार्थवाची हैं इसलिये स्थान शब्द देखके टीकाकार महाराजके अभिप्रायको सम बिना तीर्थङ्कर महाराजके चरित्रको कल्याणकपने रहित ठहरानेका परिश्रम किया सो उत्सूत्र भाषणरूप होनेसे आत्मार्थी कोई भी मान्य नहीं कर सकते । और स्थान शब्दका कल्याणकार्थ प्रसङ्गानुसार अरिहन्त सिद्धादि वीश ( २० ) स्थानक, तथा १४ गुणस्थान कोंकी तरह एकही है इस बातका विशेष निर्णय न्यायां भोनिधिजीके लेखकी समीक्षा मे पहिले छप चुका है इसलिये आचाराङ्गजीके और सन्देहविषौषधि के विसंवाद नहीं हो सकता, इस बातको विवेकी जन स्वयं विचार सकते हैं ।
और आगे फिर भी धर्मसागरजीने पञ्चाशकजीके पाठसे पांच कल्याणक दिखाके छ का निषेध किया सो भी विवेक शून्यता की
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