Book Title: Ath Shatkalyanak Nirnay
Author(s): Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 338
________________ [ ७८ ] प्रभाव कम हो जावे उनके अधिष्ठायक देव वहांसे चले जावे तथा सम्पर्क पड़ती दशा होवे और रजस्वलासे आशातना करनेवालीको संसार परिभ्रमण करनेका कर्म बंध होवे इत्यादि कारणोंसे पूर्वाचार्थ्यांने मूल नायककी अङ्ग पूजाका निषेध किया है इसलिये पूर्वकालको सती श्राविकाओंके दृष्टान्त बतलाके उन सतियोंके जैसी श्रद्धाभक्ति, शुद्धशीयल और पतिव्रता धर्मकी दृढ़ता शरीरको निरोगता मजबूत संहयनसे नियमित रजस्वला होनेवाली, वगैरह पूर्ण उपयोगयुक्त शुद्ध भाविकाओंके विवेकादि गुणोंका विचार किये बिना वर्तमान में अनियमित रजस्वला होनेवालो अविवेकी कलयुगी स्त्रियों को मूलनायककी अङ्ग पूजा करनेकी बातको स्थापन करनेका आग्रह करके रजस्वला वगैरहने मूल नायकको आशातमासे पूर्वोक्तादि अनेक तरहके नुकसानका कारण करना और उससे भगवान्को आशातनाके भागी होकर लाभके बदले हानि करके अपने संसारका कारण रूप ऐसा आग्रह करना उचित नहीं है इस बात में समुद्र जैसी बुद्धिवाले गीतार्थ लाभालाभके जानने वाले पूर्वाचार्थ्यांने जो आचरण मान्य करा है उन्होंके कथन को और आचरणको जिनाज्ञाके आराधन करनेवाले आत्मार्थी सज्जनको मान्य करना चाहिये और इस बातका आचरण श्रीजिनदत्त सूरिजी महाराजके पहिलेके पूर्वाचाय्यों से चली आतो है देखो नोपार्श्वनाथजी संतानीये मीरत्नप्रभ सुरिजीकृत समाचारी में ऋतुवतीका जिन पूजा निषेध लिखा है जब तो गछकदा ग्रहों का बाडा नहीं था इसलिये वर्तमानमें कितने ही गच्छकदा ग्रहां अज्ञानो धर्मसागरजी वगैरह और इनकी अंधपरंपरामें चलनेवाले श्रीजिनदत्त सूरिजी महाराजको स्त्री पूजा निषेध करनेका दूषण लगाते हैं सो व्यर्थही युगप्रधान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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