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( 38 ) निजमताविष्करणाथै षष्टंकल्याणकं व्यवस्था स्थापयत्।"
ऊपरके लेखकी समीक्षा करके आत्मार्थी सत्यग्रहणभिलाषी निष्पक्षपाती सज्जनोको दिखाताई, सो देखो-ऊपरके लेख में धर्मसागरजीने शास्त्रकारके उपरोक्त पाठोंका अभिप्रायको समझे बिना विवेक शून्यतासे मिथ्यात्वके उदयसे भद्रजीवोंको उन्मार्गमें गेरने के लिये शास्त्रकारोंके अभिप्राय विरुद्ध होकर पूर्वापर सम्बन्ध रहित अधूरा थोडासा पाठ लिखके व्यर्थही निजपरके संसार बढ़ानेका कारण किया है क्योंकि श्रीगणधरसार्द्धशतककी सहत्तिके उपरोक्त पाठसे श्रीजिनवल्लभमूरिजीको नवीन छठे कल्याणककी प्ररूपणा करनेवाले ठहरा कर श्रीहरिभद्रसूरिजी श्रीअभयदेवसूरिजीकी आशातना हीलमा करनेवाले उत्सूत्र प्ररूपक ठहराये सो निम्केवल बड़ी भारी अज्ञानतासे अपनी वाचालता प्रगट करी है, क्योंकि श्रीजिनवमभसूरिजीने छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा नहीं करी किन्तु मोऋषभदेव आदि २३ तीर्थकर महाराजोंके तथा श्रीगणधरपूर्वधर पूर्षाचार्यो के कथन मुजबही आगमोक्त रीतिकी प्राचीन सत्य बातोंको प्रगट करी है नतु शास्त्र विरुद्ध अपनी कल्पनासे, इस लिये नवीन प्ररूपणा कहना प्रत्यक्ष मिथ्यात्वका हेतु भूत संसारका कारण है इसका विशेष निर्णय ऊपरमें न्यायाम्भो. निधिजोके लेखकी समीक्षामें इसी ग्रन्यके पृष्ट ५६१ से ५७२ तक तथा ६१० से ६३७ तकमें छप गया है उसको विवेक बुद्धिसे पढ़नेवाले तत्वार्थी पाठकगण सत्यासत्यका निर्णय स्वयं कर सकेंगे।
और ऊपरमें धर्मसागरजीने श्रीजिनवल्लभसूरिजीको नवीन मत स्थापन करने के लिये चोतोड़में चण्डीकाके मन्दिरमें ठहरनेका लिखा सो भी अज्ञानता व द्वेष बुद्धिसे .जिनाज्ञा प्रकाशको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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