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[७७८] देव वंदनादि विधान किया नहीं और यह अभी करेंगे हो युक्त नहीं है इस लिये इनको मेरे मन्दिरमें ऐसा नहीं करने देना चाहिये ऐसा विचार करके अपने मन्दिर के दरवाजेके अगाडी आडी गिर गई और महाराजको भावकोंके साथ मन्दिरके दरवाजे पर आये हुए देखकर वो चैत्यवासीनी साध्वी दृष्टवित्त से कोष युक्त होकर बोलने लगी कि मेरे जीवते हुए तो मेरे मंदिरमें आपको न जाने दंगी परन्तु मेरेको मारो मेरे मरे बाद पीछे यदि मंदिरके अन्दर प्रवेश करो तो तुमारी खुशी तब महाराज उस चैत्यवासीनीका एसा कोष युक्त दुष्ट अध्यवसायका कलेश बढ़ाने वाला अनीतिका बचन सुनकर जानकरके वहाँसे पीछे स्थान पर भागये।
इस प्रकारसे चैत्यवासीनीने (पूर्व केनापि न कृतमेतदधुना करिस्यतीति नयुक्तं) ऐसा विचार किया और पीछे (पश्चात् संयती देवगृह द्वारेपतित्वास्थिता द्वारप्राप्ता प्रभूनवडोपोक मेतया दुष्टचितया मयामृतया यदि प्रविशत) इस तरह का अपना कदाग्रह करके दिखाया इस बात पर भी जो ब्ठे कल्याणकको नवीन प्ररूपण कहते हैं सो बड़ी अज्ञानता १क्योंकि यह चैत्यवासीनी अपने गछ परंपरा रूप हिने बन्धी दुई सावधानुष्टानको करनेवाली आगमार्थको जिनामा को नहीं जाननेवाली थी और चीतोड़ने उस समयके चैत्यवासी भाचार्यादि लोग भी अपने अपने गच्छका द्रव्य परंपरा रूप वाड़ाके दृष्टि रागमें बंधे हुए अपने अपने गच्छ वासीयोंके सिवाय अन्य दुसरे गच्छ वालोंको अपने चैत्यमें अपनी इच्छाके विरुद्ध कोई भी कार्य नहीं करने देते थे और खास भापही उन चैत्योंके मालिक बने एदुबैठे र डिये उस समय पाक
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