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(५२) माया याद होवे वैशाही लिख रखते, इत्यादि कारणोसे वर्तमानिक तपगच्छ खरतरगच्छ वगैरहोंकी पहावलियोंमें पाठान्तर देखने में आता है। खास मैंने तपगच्छकी ३४ पहावलियोंमें ३३४ मतान्तरसे पाट परम्पराके नामोंका भेद देखा है और पहिलेके समय में, मुसलमानी राजाओंके भयसे जिसके पास जो पुस्तक पहावली-आदि होते वो भण्डारादिमें बन्ध करके रखते थे उससे किसी अन्यको देना भी मुश्किल था और प्राचीन पुस्तक पहावली वगैरह हजारों लाखों शास्त्रोंको धर्मद्वेषी मुसलमानादिकोने नष्ट भी कर दिये थे, उस समय में पहावली लिखने में प्राचीन शास्त्रों के अन्तकी प्रशस्ति देखनेको नहीं मिल सकती थी, इत्यादि कारणोंसे जैसा याद आया वैसा लिखके पहावली बनाते थे इसलिये पाठान्तर होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है जिसपर कोई आक्षेप करे तो उनकी अज्ञानताके सिवाय और क्या कहा जावे सो विवेकीजन स्वयं विचार सकते हैं। __और वर्तमामिक तपवा खरतरकी पहावलीके मतभेदका तो कहनाही क्या परन्तु पहिले पूर्वधरादि प्राचीनाचार्यों की तो पहावडी बिलकुल नहीं मिलती तो क्या वे महाराज श्रीवीरप्रभु की परम्परावाले नहीं माने जावेंगे. या उन महाराजोपर किसी तरहका आक्षेप कर सकते हैं. सो तो कदापि नहीं तो फिर वर्तमानिक मतभेदको व्यर्थ झूठी आड़ लेकर श्रीजिनेश्वरसूरिजीसे खरतर उत्पत्तिका निषेध करमा यह क्या विवेकियों का काम है सो कदापि नहीं जिसपर भी दोनों महाशयोंने खरतरगच्छकी परम्परावालोंपर बड़ा भयङ्कर आक्षेप किया तो फिर इनोंकी बुद्धि मुजब तो चरित्र प्रकरणादिकोंमें पाठांतर मतभेद है वे भी चरित्र प्रकरणादि सब दोषी ठहर जावेंगे, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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