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( ७४९) ग्रन्थ बनाया है। उसमें भीभीमराजासे श्रीजिनेश्वरमूरिजीको खरतर विरुद, श्रीनवाङ्गीतिकारक श्रीअभयदेवसूरिजी खरतर गच्छमें हुए, ऐसा खुलासा पूर्वक लिखा है, जिसका पाठ भी इसी ग्रन्धके ६८० में छप चुका है, उस पाठको मान्य करना छोड़ करके अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके कदाग्रहसे अपने पूर्वजो की तथा अपने पूर्वजोंके कथनकी अवहिलना करते हुए, उनपर अनाभोगका दूषण लगाते हैं, अर्थात् तपगच्छाचार्य श्रीसोमसुन्दरसूरिजीके सन्तानीय (प्रशिष्प ) ने संवत् १४१२ में 'उपदेश सत्तरी में श्रीजिनेश्वरसूरिजीसे-खरतरगच्छ श्रीनवाङ्गीतिकारक श्रीअभयदेवसूरिजी खरतरगच्छमें हुए, ऐसा लिखा है उसको झूठा ठहरा करके किसीकी देखादेखी बिना उपयोगसे लिखा होगा-ऐसा उपरोक्त धर्मसागरजी तथा न्यायाम्भोनिधिजी दोनों महाशयोंने लिखा है, अन्य भी कदाग्रहीजन ऐसा कहते हैं, सो बड़ी अज्ञानता है, क्योंकि प्रीजिनेश्वरसूरिजीसे खरतरगच्छकी उत्पत्ति सम्बन्धी अनेक शास्त्रोंके प्रमाण मौजूद हैं, तथा परम्परागतसे १३ भेद-वगैरह प्रत्यक्ष प्रमाण भी देखने में आते हैं, इसलिये अपने पूर्वजके सत्यकथनको विना उपयोगअनाभोग अनादरनीय कहके-पूर्वजकी: आशातना और झूठा कदाग्रह करना सर्वथा अनुचित है,। जिसपर भी अनाभोग कहनेका आग्रह करोंगे, तो, अनाभोगका कारण भी बतलामा होगा, यदि कहोंगे, कि पोजिनेश्वरसूरिजीको भीमराजाने खरतर विरुद नहीं दिया, तो यह भी कहना भर्वपा व्यर्थ है, क्योंकि न देने सम्बन्धी आप कोई शास्त्रीय दृढ़ प्रमाण देखा सकते हो, सो तो नहीं। तो फिर आपके मति कल्पनाका आग्रहमात्रको कौन मान्य करेगा, अपितु कोई भी नहीं। और ९००० या पाठान्तरे १०८४ में, श्रीजिनेश्वरमूरिजी तथा श्रीभीम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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