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सूरिजीने पहिलेही पहिल राज सभा में चैत्य वासियोंका पराभव किया था, तबसे ही उन्होंका जोर दिनो दिन कमती होने लगा, सो जैसे जैसे - संयमियोंने चैत्यवासियोंके अनुचित वर्तावके भेद खोलकर भव्य जीवोंको शुद्ध मार्गमें लानेका खूब प्रचार किया तैसे तैसे ही वे चैत्यवासी जन अपने अनाचारोंका विचार करके उनोंको छोड़ तो नहीं सकते थे, परन्तु विशेष रूपसे संयमियों के द्वेषी बनते थे, और जबसे श्रीजिनवल्लभ सूरिजीने, तथा श्रीजिनदत्तसूरिजीने, उन चैत्यवासियोंकी अविधि उत्सूत्रता सिथिलताको बड़े जोर शोर से निषेध करी और भव्य जीवोंके उपकार के लिये भगवान्की आज्ञानुसार शुद्ध विधिमार्गकों प्रकाशित किया, और कठिन क्रियाके वर्ताव से शिथिलाचारियोंको लज्जित किये, और चमत्कारोंसे तथा उपदेश से हजारों लाखों अन्यमत वालोंको प्रतिबोध देकर जैनी ओसवाल वगैरह श्रावक बनाये, और विशेष रूप से चैत्यवासियोंकी मायाजाल रखेड़ डालने के लिये अनेक ग्रन्थों की भी रचना करो, और चारों तरफ से श्रीजैनशासनकी बहुत बड़ी भारी उन्नति करके दूसरे उदयको प्रकाशमान किया, तबसे चैत्यवासी लोग और अन्य गच्छवाले भी शिथिलाचारीजन इन महाराजोंसे बहुत द्वेष रखने लग गये थे, ( सो तो छपा हुआ श्रीसङ्गपक वांचनेसे मालुम हो जावेगा ) उससे इन महाराजोंकी अनेक तरहसे निन्दा करके अवर्णवाद बोलने लगे, तथा खरतर (सुविहित ) विरुद से बहुत द्वेष हो गया, परन्तु खरतर विरुद धारकोंकी बनाई हुई श्री नवाङ्गसूत्र वृत्ति वगैरह शास्त्रोंकों मान्य किये बिना काम भी नहीं चल सकता था, इसलिये उन द्वेषी लोगोंने १३०० के लगभग श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजको खरतर विरुदको प्राप्ति होनेका निषेध
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