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इनके कायोत्सर्ग और इन सर्वो की पृथग् पृथग् थुइ कहनी कही है इस समाचारोके अंत श्लोक में ऐसें लिखा है के श्री अभयदेवसूरि के राज्य में यह समाचारी रची गई है और इसी पुस्तककी समाप्ति में ऐसे लिखा है इति श्रीखरतरगछे श्री अभयदेवसूरि कृता समाचारी संपूर्णा । यह पुस्तकभी हमारे पास है किसीको शंका होवे तो देख लेवे ॥
देखिये ऊपर के लेख में न्यायांभोनिधिजीने तीनथुइ वालों के कदाग्रहको हटानेके लिये श्रीअभयदेवसूरिजी को श्रीखरतर गच्छ के लिखके इन महाराजके कथनसे प्रतिक्रमणमे च्यारथुइ कहना ठहराया और श्रीखरतर गच्छके अभयदेवसूरिजी कृत समाचारीके लेखमें किसी को शङ्का होवे तो खास उस पुस्तकको देखा करके लोगोंको शंकाकानिवारण करनेकेलिये खुलासा सूचना करी है ।
9 सातवा और भी सुप्रसिद्ध १४४४ ग्रन्थकारक श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराज कृत श्री 'अष्टक' जी नामा ग्रन्थकी टोका श्री जिनेश्वरसूरिजोने विक्रम सम्बत् १०५० में बनाई है और उस टीकाको श्री अभयदेवसूरिजीने शुद्ध करो है सो वो श्री अष्टकजी नामा ग्रन्थ भाषान्तर सहित छपकर प्रकाशित हो चुका है उसकी 'प्रस्तावना' में उपरोक्त इन तीनों महाराजोंके संक्षिप्त चरित्र लिखे हैं उसमेंसे यहां श्री जिनेश्वरसूरिजी के तथा श्रीअभदेवसूरिजी के चरित्र लिख दिखाता हूँ सो नीचे मुजब है । श्रोजिनेश्वरसूरिजी महाराज ।
आ " अष्टकजी” नामना ग्रन्थनी टीका करनारा श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराज विक्रम संवत् एक हजारना सैकामां विद्यामान हता एम संभवे छे। ते श्रीवर्द्धमानसूरीश्वरजी महाराजना शिष्य हता, अने श्रीअभयदेवसूरिजी जिनचद्रसूरिजी, तथा जिनभद्रसूरिजीना गुरु हता । ते ओ संसारी पणामां सोम
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