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तारण समत्थो बोहित्थोव्व महत्थो सिरि सूरिजिणेसरो पथमो॥॥ गुरु सीराओ धवलाओ सुविहिया साहु सन्तती जाया हिम वंताऊ गंगुत्व निग्गया सयल जण पूज्जा ॥१०॥इन गाथाओंमें भव्यजीवोंकों भवजलधिके दुखसे पार उतारने में नाव समान श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजसे सब जनोंके पूज्यने योग (हीमवन्त पर्वतसे गङ्गानदीके निकलनेकी तरह ) सुविहित याने खरतर सन्तती चली अर्थात् साधुके वर्तावने शुद्ध चलने रूप सुविहित खरतर परम्परा चली ऐसा खुलासा पूर्वक लिखा है सो सुविहित कहों अथवा खरतर कहो दोनों शब्द पर्याय वाची एकार्थ वाले हैं क्योंकि पहिले श्रीअणहिलपुर पहनने चैत्यवासिलोगोंने वहांके राजाको अपने वशीभूत करके उनसे पहा (हुकुम नामा) लिखा लिया था कि इस नगरमें हम लोगोंके समुदाय (चैत्यवासियों) के सिवाय अन्य जैन श्वेतांबर मुनि रहने न पावे सो इस तरहकी श्रीवमराज चावडासे अपनी स्वार्थ सिद्धताकी बात मंजूर कराके क्रियापात्र शुद्ध मुनियों के आभावसेअपना मनमाना उपदेशसे भद्रजीवोंको अपने गच्छ परम्पराके और दूष्टि रागके फन्देमें फँसाकर शिथिलाचारी होते हुए कितनीक बातों में अविधि करके उत्सूत्रतासे अपनी बात जमा बैठे थे इसलिये इस नगर में चैत्यवासियोंके सिवाय अन्य शुद्ध संयमी जैन मुनियोंको रहनेका स्थान भी नहीं मिल सकता था उससे साधुओंका माना जाना इस मगरमें प्रायः बन्ध हो गया था तब श्रीवर्द्धमानसूरिजी महाराजकी आज्ञानुसार श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराज उपरोक्त अनर्थका निवारण करके भव्यजीवोंको विधिमार्गकी सत्य बातोंने प्रवर्तमान करनेके लिये और शुद्ध संयमी साधुओंका आना जाना शुरू करानेके लिये इस अणहिलपुर पहणने पधारे सो जब चैत्यवासियोंके
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