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[ ७०५ ] सूरिका सत्य आचार देखा, और चैत्यवासियोंका उस पुस्तकसे विरुद्ध आचार देखा, इससे सारी सभाके सामनें राजाने कहा ॥ अतिशय पणे करके श्रीजिनेश्वरसूरि सच्चा हुवा, इससे ये खरतरा है, और चैत्यवासी हारगया, इससेती ये कवला हे ॥ हारा सो कवला थया ॥ जीता खरतर जाणिया ॥ तिणीकाल श्रीसंघमें। गच्छ दोय वखाणिया ॥१॥ इसी तरे सुविहित पक्षधारक श्री जिनेश्वर सूरि, वीर संवत् १५५० ॥ विक्रम संवत् १०८० में खरतर विरुदकों प्राप्त भए। तबसें कोटिक गच्छ, चन्द्रकुल, वयरी शाखा, खरतर विरुद, जैसा भेद स्थिवर साधु, नवीन साधुओंसे कहने लगे, इहांसे मूल कोटिक गच्छका नाम खरतर गच्छ प्रसिद्ध हुआ, अतिशयेन खरा सत्य प्रतिज्ञा ये ते खरतराः, इत्यादि खरतर विरुदकों प्राप्त होनेवाले श्री जिनेश्वर सूरि बड़े प्रभावीक भए ॥ ४०॥" ।
१३ तेरहवां-और भी अन्यमतके न्यायवान् मध्यस्थ विद्वान्ने अगरेजी भाषामें सभा, व्याख्यान (भाषण ) करते समय अनेक शास्त्रानुसार जैनधर्मके प्राचीन इतिहास संबंधी बहुत खुलासा किया था उसमें खरतरगच्छ तथा तपगच्छकी पहावलियोंका कथन करने में तपगच्छकी पदावलीको पहिले कथन न करके खरतरगच्छकी पहावलीको पहिले कथन करी थी और इसके बाद तपगच्छकी पहावलीको कथन करी थी उसी खरतरगच्छकी पहावलीमें भी श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजसे 'खरतर' विरुदलिखाहै उसका गुजरातीभाषा अनुवाद सन् १९०८ जुलाई मासके "सनातन जैन" नामा मासिकपत्रके पृष्ट ३७४ से ३८१ तक में प्रसिद्धहुआ था जिसका उत्तरानीचेमुजबहै :___ “डाकुर जहॉन्नेस कलाह पी० एच० डी० (बर्लिन) ए उखेलो अंगरेजी निबन्ध-डाकृर भाउदाजी रॉयल ऐसीमाटीक
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