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[ ७३० ] लिखा होवे तथा अन्य जगह वही अमुक सूरिजी अमुक विरुद धारक थे इन्हीं महाराजके सन्तानीये अमुक गच्छवाले कहलाते हैं एसा लिखा होवे तो वहां राजसभामें विद्वानोंसे शास्त्रार्थ होनेका आप विजय प्राप्त करनेका राजाने खुश होकर उनके सत्कार रूप विरुद (पदवी) देनेका और अमुक विरुद धारक अमुक आचार्य के परम्परावाले उस पदवीके कारण पदवीके नामका गच्छवाले कहलाने लगे इत्यादि सब सम्बन्ध पूर्वक माना जाता है।
तैसेही श्रीजिनेश्वरसूरिजीने भी राज्यसभामें शास्त्रार्थ करके लिङ्गधारियोंका पराजय किया यह बात तो पूर्वोक्त शास्त्रों में खुलासाही लिखी हुई है तथा राज्यसभाने या विद्वानोंकी सभामें शास्त्रार्थ में विजय पानेवालेको राजाओंकी तरफसे या विद्वानोंकी तरफसे उनको पदवी मिलति थी और मिलति भी है इस बातके तो शास्त्रों में भी अनेक प्रमाण मिलते हैं और वर्तमानमें प्रत्यक्षपने में भी अनेक प्रमाण विद्यमान है। और अन्य शास्त्रोंमें तथा पहावलियोंमें, शिलालेखों में, चरित्रों में, चैत्यवासियोंके जीतनेसे राजाने खरतर विरुद दिया ऐसा खुलासा लिखा है उसके कितनेही प्रमाण तो ऊपरमें भी छप चुके हैं और उपरोक्त शास्त्रों में जब शास्त्रार्थ का कारण लिख दिया तो विजय प्राप्तिसे सत्काररूप राजाकी तरफसे खरतर विरुदके कार्यका तो ऊपरसे भी सम्बन्ध जोड़ना चाहिये सो इसका दृष्टान्त ऊपर में लिखा गया है इसलिये उपरोक्त शा. स्त्रों के प्रमाणोंसे भी कारण कार्य भाव ग्रहण करके खरतर विरुदकी प्राप्ति मानना चाहिये। ___ और पहिली बार जो कार्य होता है वही प्रधानरूपसे गिना जाता है परन्तु पीछे तो कईवार वैसा कार्य होवे तो भी
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