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अब विचार करनेकी बात है कि यदि श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजने उन चैत्यवासियोंका पराभव करके वहां शुद्ध संयमी मुनियोंका विहार खुला करानेके लिये वहां राजासे परिचय न किया होता तो राजा महाराजका भक्त होकर महाराजके पास जैन शास्त्रोंका अभ्यास कैसे करता और जैन धर्मानुरागी होकर विशेष न्यायवान् दयावान् कैसे बनता इससे भी साबित होता है कि यह बात अवश्य बनी होगी तभी तो रासमाला में और मराठी इतिहास में श्रीजिनेश्वर सूरिजीको दुर्लभराजाके गुरु लिखे हैं और राज्यसभा में शास्त्रार्थ होनेसे जितने वाले विद्वान्को राजाकी तरफसे उनको सत्कार रूप पदवी मिलती है सो यह तो अनेक राजाओंको सभामें अनेक विद्वान् जैनाचार्यों ने अनेक तरहके विरुद प्राप्त किये हुए शास्त्रों में सुनने में आते हैं इसी तरहसे रासमाला और मराठी भाषा के इतिहास से भी दुर्लभराजाने श्रीजिनेश्वर सूरिजीको खरतर विरुद दिया सिद्ध हो जाता है अन्यथा जहां अणहिलपुर पहणमें संयमियोंका जाना और ठहरना नहीं होता था तहां श्रीजिनेश्वर सूरिजी के पास राजाके शास्त्राध्ययन करनेका और जैनधर्मकी शिक्षा पाकर दयावान् होना यह कैसे बन सके सो विवेकी स्वयं विचार लेंगे ।
और 'प्रबन्ध चिन्तामणी' के नामसे दुर्लभ राजाकी मृत्यु सं० १०99 में होनी ठहराई सो तो प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि 'प्रबन्धचिन्तामणी' में तो १०99 में दुर्लभ राजाके पाटणसे काशीकी यात्रा जानेको लिखा है परन्तु मृत्यु होनेका संवत् नहीं लिखा इसलिये 'प्रबन्धचिन्तामणी' के नामसे सं० २०99 में मृत्यु होने का ठहराना सो भट्टजीवोंको भरम में डालकर अपने दूजे महाव्रतमें हानि पहुंचाना उचित नहीं है ।
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