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[ ७०२ ] के अर्थको विस्तार करने में समर्थ, ऐसे श्री जिनेश्वर सूरिजी महाराजने गुजरात देशमें श्रीअहिलपुर पट्टणमें श्रीदुर्लभ राजाकी राज्य-सभा, चैत्यवासी आचार्य नामधारकोंके साथ साधुके क्रिया कर्त्तव्यका व्यवहार सम्बन्धी युक्ति और आग. मानुसार धर्मवाद करके,वहां साधुका वसति मार्ग स्थापित किया उससे इन महाराजको देश देशान्तरोंमें शोभा प्रसिद्धिको प्राप्त होती भई। यद्यपि शास्त्रों में तो वसतिमार्गको प्रकट ही कथन किया हुआ है परन्तु इस क्षेत्रमें शिथिलाचारी द्रव्यलिंगियोंसे लुप्त प्रायः होगया था इसलिये इन महाराजने प्रगट किया और इन्हीं अणहिलपुर पट्टणको “दशरूप" नामा नाटक सदृश ओपमा देकर सात विशेषणोंकी समानता दिखाई है सो तो खुलासा ही लिखाहै और ऊपरके पाठसे वसतिमार्ग प्रकाशक कहो या खरतर मार्ग प्रकाशक कहो अथवा वसतिवासी मुविहित मार्ग प्रकाशक कहो सबका भावार्थ एकही है सो तो ऊपरके लेखसे विवेकीतस्वज पाठकगण स्वयं समझ सकते हैं:___ और इसी तरहसे उपरोक्त पाउकी वहत्ति तथाश्रीसंघपहककी बत्ति और षट् स्थानक प्रकरण इत्ति वगैरह अनेक शास्त्रों में दुर्लभराजाकी राज्य सभामें श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराज नेचैत्यवासियोंके साथ शास्त्रार्थ करके उन्होंको हटाये और संयमियोंका विहार शुरू करानेका खुलासापूर्वक लिखा है उन सब पाठोंकों विस्तारके कारणसे यहां नहीं लिखता हूं, परन्तु जिसके देखनेकी इच्छा होवे सो उपरोक्त शास्त्र पाठ स्वयं देख लेवेगे।
१२ बारहवां और भी सीखरतरगच्छकी गुर्वावली श्रीआचार रत्नाकर के दूसरे प्रकाश छप कर प्रसिद्ध हुई हैं उसके पृष्ठ १०४ । १०५। १०६ में नीचे मूजिब लिखा है।
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