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[ ६७२ ] जितनी मिल सके उतनीहीमें भी श्रीजगचन्द्रसूरिजीसे लेके वर्तमानिक भीतपगच्छके समुदाय तक परम्परा मिलाना शास्त्रानुसार प्रोजिनाज्ञा मुजब है परन्तु पूरी पहावलीके अभावसे परम्परागत शुद्ध संयमियोंकी पहावली छोड़करके प्रत्यक्षपने शास्त्र मर्यादा और लौकिक विरुद्ध हो करके पूरी पहावली मिलानेके लिये झूठे आलम्बनसे असंयमियोंकी अशुद्ध परम्परामें मिलाना उचित नहीं है तिस पर भी श्रीजिनाज्ञाकी विराधना रूप बड़गच्छसे परम्परा मिलाकर भद्रजीवोंके आगे आप वडगच्छके अधिपति बनना चाहते हो सो भी नहीं बन सकते क्योंकि आजतक परम्परागतसे भी बड़गच्छके-आचार्यादिकोंका और भावकोंका समुदाय विद्यमान कालमें भी मौजूद है इसलिये वडगच्छसे आप अपनी परम्परा मिलावो तो भी वडगच्छके अधिपति नहीं बन सकते किन्तु अपनी कल्पनाके लेखसे भी आप लोग श्रीजिनाज्ञाकी विराधाना करके भी शाखारूप बनो तो आपकी खुशी इसमें हमारा कोई नुकशान नहीं परन्तु शास्त्रप्रमाणानुसार श्रीचैत्रवाल गच्छसे अपनी परम्परा मिलाते तो संयमियोंकी शुद्धपरम्परा वाले ठहर सकते अन्यथा नहीं आगे इच्छा आपकी। ___ और हम लोग तो न्यायांभोनिधिजीके उपरोक्त लेख मुजब, जिनाज्ञानुसार तथा श्रीदेवेन्द्रसूरिजीके श्रीधर्मरत्न प्रकरणके पाठसे और श्रीक्षेमकीर्ति सूरिजी कृत श्रीरहत्कल्प उत्तिके अन्तमें प्रशस्तिके पाठसे श्रीजगचन्द्रसूरिजीको दूसरी बार शुद्ध संयम ब्रहण करने वाले श्रीचैत्रवाल गच्छके मानते हैं तथा इसी गच्छसे उनकी शुद्ध परंपरा भी मानते है और वोही परम्परा आप लोगोंकी भी ठहरती है नतु वड़गच्छकी सो विवेक बुद्धि हृदय में लाके पक्षपात दूष्टिरागसे अन्धपरम्पराके आग्रहको छोड़ करके तत्व दृष्टिसे अच्छी तरहसे विचार लेना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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