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शुद्ध दीक्षा अङ्गिकार करी थी जिस पर भी इन महाराजको श्रीचैत्रवालगच्छकी परम्परामें न लिखकर भद्रजीवोंको भरमाने के लिये साह्यता वगैरहके कल्पित आलम्बनोंसे श्रीवडगच्छकी परम्परा में लिखे हैं सो उपरोक्त कथनानुसार सर्वथा श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध होनेसे अप्रमाणिक समझना परन्तु जिस जिस ग्रन्थ में श्री चैत्रवाल गच्छकी परम्परा लिखी होवे सो श्रीजिनाज्ञानुसार प्रमाणिक समझना चाहिये ।
और वर्तमानिक कितनेही गच्छवाले यति लोग, चैत्रवालगच्छ के चैत्यवासी श्रीजगन्चन्द्रसूरिजी से तपगच्छ नाम प्रगट हुआ. कहते हैं सोभी प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि यह महाराज पहिले वडग में शिथिलाचारी थे परन्तु पीछेसे शिथिलाचार छोड़कर क्रिया उद्धार करके चैत्रवालगच्छ में तो दूसरी बार शुद्ध संयम ग्रहण किया था और पीछेसे वैराग्यभावसे खूब कठिन तपश्चर्या जीवित पर्यन्त आंबीलकी तपस्या करने लगे थे तब राजाने बहुत तपस्वी दुर्बल शरीरवाले देखकर " महातपा" विरुद दिया था परन्तु कालांतर में लोग 'महातपा' का 'महातमा ' ऐसा कहने लग जायेंगे इसलिये 'महा' शब्दको छोड़ कर 'तपा' कहने लगे उस दिनसे इन महाराज के समुदायवाले श्रीतपगच्छके कहलाने लगे है इसलिये इन महाराजको चैत्रवाल गब्बके चैत्यवासी कहना मिथ्या है। और वर्तमानिक तपगच्छवालोंका वड़गच्छसे तपगच्छ हुआ ऐसा कहना भी उपरोक्त लेखसे जिनाजा विरुद्ध मिथ्या ठहरता है सो तो विवेकी जन स्वयं विचार लेवेंगे ।
और वर्तमान कालमें जो जो आत्म कल्याणाभिलाषी जन अपना शिथिलाचारको छोड़कर क्रिया उद्धारसे दूसरी बेर शुद्ध संयम लेनेवाले महाशयोंको भी किसी संयमीको गुरु धारण करना उचित है परन्तु श्रीराजेंद्रसूरिजी की तरह दूसरा गुरु
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