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[ ६७८ ], धारण किये विना स्वयं क्रिया उद्धार करना शास्त्र मर्यादा विरुद्ध है और क्रियाउद्धार करने में देशकालानुसार व्यवहार शुद्ध देखलेना और न्यूनाधिक विद्वत्ता वगैरह सब गुणतो वर्तमानकाले दूसरेमें मिलने मुश्किल है इसलिये अभिमान छोड़कर छिद्रग्राही न होते हुए जिनाज्ञा आराधन करनेके लिये शास्त्रोक्त प्रमाणानुसार श्रीजगच्चन्द्रसूरिजी महाराजकी तरह क्रिया उद्धार करना चाहिये। __ और श्रीजगचन्द्रसूरिजीकी वडगच्छमें तथा चैत्रवाल गच्छमें दोनों गच्छों में परंपरा लिखना मान्य करो तो भी आत्मार्थी शुद्ध संयमियोंको तो श्रीचैत्रवालगच्छकी परंपरा मान्य करनी पडेगी और शिथिलाचारियोंको वडगच्छको सो इस न्यायसे भी तो श्रीदेवेंद्रसूरिजी वगैरह महाराजोंकी परंपरा श्रीचैत्रवाल गच्छसे मिलाना ठहरता है नतु वडगच्छसे इसको भी तत्वज्ञजन स्वयं विचार लेवेंगे।
बस इसी तरहसे न्यायांभोनिधिजीने श्रीजगच्चन्द्रसूरिजी महाराजको श्रीचैत्रवालगच्छके श्रीदेवभद्रोपाध्यायजीके शिष्य पने लिखने, मानने का छोडकर श्रीवडगच्छके श्रीसोमप्रभसरिजीके तथा श्रीमणीरत्नसूरिजीके शिष्य लिखने मानने रुप अपनी विरुद्धाचरणकी बातको दबादेनेके लियेही तो श्रीजिनेश्वरसूरिजी, श्रीअहिलपुरपट्टणमें श्रीदुर्लभराजाकी पाठांतरसे श्रीभीमराजा की राज्य सभामें चैत्यवासियोंसे साधुके वर्ताव सम्बन्धी विवाद करके उन्होंकी अविधि उत्सूत्रता शिथिलताको सबके सामने प्रगट करते हुए शास्त्रोक्त साधुके वर्ताव में आप विशेष सच्चे ( अतिशयखरे ) रहे तब राजाने उन चैत्यवासियोंको कहा कि तुमतो साधुके वर्तावमें कवले (शिथिल ) हो और श्रीजिने
खरसूरिजीको कहा आप खरतर ( अतिशय विशेष सच्चे ) हो इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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