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सूरिजी की लिखी हुई उपरोक्त बात अच्छी नहीं लगती और यदि अच्छी लगती होवेतो अब भी अपनी भूलको सुधारके श्रीजगत्चन्द्रसूरिजीको आज्ञाविरुद्ध वड़गच्छके शिथिलाचारियोंकी अशुद्ध परम्परा में लिखना, मानना, छोड़कर आज्ञानुसार चैत्रवालगच्छके शुद्धसंयमियोंकी शुद्धपरम्परा में लिखना मानना अङ्गिकार करना चाहिये नहीं तो चैत्रवालगच्छके लिखने मानने छोड़कर बड़गच्छकेही लिखोंगे तो यह लिखना मानना जिनाज्ञा भङ्गका कारणरूप होनेसे आपलोगोंकी बहुगच्छकी परम्परा कदापि शुद्ध नहीं मानी जा सकती और अशुद्ध परम्परा श्रीजिनाज्ञाभिलाषी आत्मार्थी निष्पक्षपातियोंको छोड़कर शीघ्रतासे श्रोजिनाज्ञामुजब शुद्धपरम्परा मान्यकरनी ही परम उचित है।
और आपलोग त्यागी वैरागी शुद्धसंयमी कहलाके भी चैत्र वालगच्छकी त्यागी वैरागी शुद्धसंयमियोंकी परंपरा में श्रीजगचन्द्रसूरिजी को लिखना मानना छोडकर शिथिलाचारियोंकी अशुद्ध परंपरामें लिखके उसी मुजब मानते हुए इन महाराजको तथा इनमहाराजके पिछाड़ीके आपके सब पूर्वजोंको शिथिलाचारियोंके शिष्य बना देते हो तथा आपलोग भी वैसे ही शिथिलाचारियोंके शिष्य बन जाते हो सो भी कितनी वडी शर्म की बात है
और श्रीजगचन्द्र सूरिजी महाराजके पहिलेके गुरुजी दादागुरुजी वगैरह ३ । ४ पेढीके पूर्वजोंको संयमी मानकर asगच्छ के ही इन महाराजको लिखते मानते हो वो सो भी नहीं बनसकता क्योंकि जो इन महाराजके गुरुजी वगैरह ३४ पेढी वाले जो संयमी होते तो इन महाराजोंको अपने वडगच्छको तथा अपने गुरुजी वगैरहोंको छोड़कर अपने शिथिलाचार के आचार्य (सूरि) पदके अभिमानको नरक्खके श्री चैत्रवाल
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