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[ ६६४ ] गच्छके श्रीदेवभद्रसपाध्यायजीके पास उपसम्पत् याने फिरसे दूसरी वेर दीक्षा लेनेकी कोई भी आवश्यकता नहीं होती परन्तु अपने गुरुको और गच्छको छोड़कर दूसरे गच्छवालेके पास दूसरी वार दीक्षा लेनी पड़ी इससे इन महाराजके गुरुजी दादा गुरुजी वगैरह संयमी नहीं थे ऐसा सिद्ध होता है इसलिये इन महाराजको वडगच्छके न मानकर चैत्रवालगच्छके मानने तथा उनसे ही परंपरा मिलाना उचित है, नतु वडगच्छसे। ___ और इतने पर भी वहगच्छसे परंपरा मिलाना कहोगे तो भी यह मिथ्यात्वका कारण ठहरता है सोही दिखाता हूं कि देखो इन महाराजने दूसरी वेर दीक्षाली उससे यह महाराज शुद्ध संयमी ठहरे सो इन संयमी महाराजको संयमियोंको चैत्रवालगच्छकी शुद्ध परंपरामें लिखना छोड़कर शिथिलाचारियों की अशुद्धपरंपरामें लिखके उन शिथिलाचारियोंको शुद्धसंयमी अपने पूर्वाचार्य मानलेना सो प्रत्यक्षपने असाधुको साधुमानने सूप मिथ्यात्व आता है इसको निष्यक्षपात पूर्वक विवेक बुद्धिसे खब विचार लेना चाहिये। ___और श्रीजगतचन्द्रसूरिजी महाराज पहिले मूलमें वडगच्छके थे ऐसा समझकर दूसरी वेर दूसरे गच्छमें दीक्षा लेनेपरभी पहिले की वडगच्छकी परंपरा मिलाना मान्य करते हैं सोभी प्रगटपने लौकिक और लोकोत्तर दोनोंसे विरुद्ध बनता है क्योंकि प्रथम तो लौकिकमें भी जो लडका अपने जन्मदाता माता पिताको छोड़कर दूसरी जगे जिसके गोद जावे उनको माता पीता मानने पड़ते हैं तथा उसीके गौत्र कुलकी परंपरामें गिनाजाता है परन्तु पहिलेके जन्मदाता माता पीताके गौत्र कुलकी परम्परामें बो महीं गिना जाता यह बात तो जगतमें प्रसिद्ध हैं और इसी तरहसे लोकोत्तरमें श्रीजैनशास्त्रोंमें भी जिसके पास दूसरी वेर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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