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[ ६६९ ] सुप्रसिद्ध श्रोनवांगी वृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजीके शिष्य लिखने न्यायांभोनिधिजीको उचित थे सो न लिखकर धर्मसागर जीकी धर्मठगाईकी मायाजालमें फंसकर व्यर्थही भद्रजीवोंको उन्मार्गमें गेरनेका हेतु करके संसार वढनेका कारण किया है जिसको तत्वज्ञजन अच्छी तरहसे विचार सकते हैं।
तथा और भी न्यायांभोनिधिजीकी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वकी मायाचारीका प्रत्यक्ष नमूना पाठकगणको यहां दिखाता हूं कि, देखो न्यायांभोनिधिजीने उपरोक चतुर्थ स्तुतिनिर्णयकी पुस्तकके पृष्ठ१०० की पंक्ति १० वीं से पृष्ठ १०१ की पंक्ति १३ तकके लेखमें खासआपनेही श्रीजिनवल्लभसूरिजीको श्रीनवांगी कृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजीके शिष्य लिखे हैं सो लेख नीचे मुजब है। ___“नवांगीत्तिकार जो श्रीअभयदेवपूरिजी तिनके शिष्य रोजिनवल्लभसूरिजीने रचीहुइ समाचारीका पाठलिखते हैं ॥ पुण पणवोसुस्सासं, उस्सग्गं करेह पारए विहिणा ॥ तो सयल कुसल किरिया, फलाण सिद्धाणं पढइ थयं ॥१४॥ अह सुय समिद्धि हेत, सुयदेवीए करइ उस्सगं ॥ चिंतेइ नमुक्कार, पुणइ देह तिए थुरा ॥ १५ ॥ एवं खित्तपुरीए, उस्सग्गं करेइ सुणह देवथुई ॥ पढिऊण पंचमंगल, मुव विसह पमझ संडासे ॥ १६ ॥ इत्यादि ॥
भाषा ॥ श्रोजिनवल्लभसूरि विरचित समाचारिमें प्रथम पडिक्कमणे में चार थुइसे चैत्यवंदना करनी पीछे प्रतिक्रमणे अवसानमें श्रुतदेवता अरु क्षेत्र देवताका कायोत्सर्ग करणा,
और इनोंकी थुइयां कहनी, यह कथन पंदरावी अरु सोलावी गाथामें करा है, जब श्री अभयदेवमूरि नवांगी कृत्तिकारक शिग्य श्रीजिनवममसूरिजीकी बनवाइ समाचारीने पूर्वोक्त लेख तब तो श्रीअभयदेवमूरिजीसे तथा आगु तिनकी गुरु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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