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नाज्ञाविरुद्ध होनेसे मानने योग्य नहीं है इस बातको निष्पक्ष पाती विवेकी तत्वज्ञ जन स्वयं विचार सकते हैं।
और श्रीजगत्चन्द्रसूरिजीने अपने गच्छको शिथिल जानकर श्रीचैत्रवाल गच्छके श्रीदेवभद्रजी उपाध्यायजीकीसाहतासेक्रिया उद्धार किया ऐसा जैनतत्वादर्श वगैरहोंमें लिखा है सो भी मायारत्तिसे मिथ्या है क्योंकि 'चतुर्थ स्तुति निर्णय में दूसरी बार फिरसे दीक्षा लेनेका खुलासा लिखा है तथा शिथिलाचार छोड़े तो दूसरी बार दीक्षा लिये बिना क्रिया उद्धार करना नहीं बन सकता और जब दूसरी बार दीक्षा लेकर क्रिया उद्धार कियाजावे तो जिसके पास क्रिया उद्धार कियाजावे उनके शिष्य बनकर उनको गुरु माननाही पड़ता है, और जब दूसरी बार दीक्षा ली उनके शिष्य बने उनको गुरु माने, तो फिर उनकी साह्यतासे क्रिया उद्धार किया, ऐसा कहना प्रत्यक्ष मिथ्या व्यर्थ ठहरगया इसलिये यदि आप लोग साह्यतासे क्रिया उद्धार करनेके बहानेसे भी बड़गच्छकी परंपरा मिलाना ठहराते हो सो भी कदापि नहीं बन सकता, और जो श्रीदेवभद्रोपाध्यायजीकी साह्यतासे क्रिया उद्धार करके उनको गुरु न माने होते तो श्रीदेवेन्द्रसूरिजी श्रीधर्मरत्न प्रकरणकी वृत्तिके अन्त में प्रशस्ति के लेखमें श्रीदेवभद्रोपाध्यायजीको गुरुपने लिखके श्रीचैत्रघाल गच्छसे श्रीजचन्द्रसूरिजीकी तथा अपनी परंपरा कदापि न मिलाते और वडगच्छकीही परंपरा लिखते सो न लिखकर घड़गच्छको छोड़ करके चैत्रवाल गच्छसे परंपरा मिलाई और आप भी वडगच्छके न बन कर चैत्रवाल गच्छके बने हैं, तथा वैसे ही श्रीक्षेमकीर्तिसूरिजीने भी श्रीक्षहत्कल्पत्तिके अन्तकी प्रशस्तिके लेख में लिखकर चैत्रवाल गच्छसे परंपरा मिलाई है और न्यायांभोनिधिजीनेभी 'चतुर्थस्तुति निर्णय की पुस्तकर्ने चैत्रवाल
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