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दीक्षालेवे उसीकी परम्परामें वो गिमाजावे, परं-पहिलेकी नहीं, सोतो उपर में खुलासा पूर्वक लिखा गया है जिसपर भी पहिले की पर पराको ही मान्य रखो तो श्रीबूटेरायजी ( श्रीबुद्धिविजय जी ) तथा श्रीआत्मारामजी ( न्यायांभोनिधिजी ) वगैरहोंने जो पहिले ढूंढकमत में दीक्षा लोथी पीछे श्रीतपगच्छ में दूसरी वेर दीक्षा ली है जिन्होंको भी श्रीतपगच्छके न मानके उन्होंकी परंपरा भी श्रीतपगच्छ में न मिलाकर ढूंढकमतके साधुओं के शिष्य कहा करो तथा उन्ही मुंहबंधों की परंपरा में लिखने चाहिये और वर्तमानिक श्रोआत्मारामजी के समुदाय वाले वगैरहोंको भी श्रीतपगच्छ के पूर्वाचार्यों को अपने पूर्वज न मानकर उन मुहबंधों को अपने पूर्वज पूर्वाचार्य मानने तथा अपनी परंपरामें भी लिखने चाहिये तबतो इन्होंकी तरहसे आपलोगोंकी कल्पना मुजब श्रीजगचंद्रसूरिजी महाराजकोभी बड़गच्छ में लिखना और परंपरा मिलाना आप लोगोंके बनसकेगा अन्यथा कदापि नहीं ।
और भी पहिलेकी अशुद्ध दीक्षाको आगे करके दूसरी बारकी शुद्ध दीक्षाको छोड़ देने पूर्वक, पञ्जाबी ढूंढक जीवण रामजीके शिष्य न्यायांभोनिधिजी ( श्रीमद्विजयानंद सूरिजी ) ने " जैन तत्वादर्श" वगैरह ग्रन्थ बनाये जिन्होंके शिष्य संप्रदाय में अभी इतने साधु विद्यमान है, ऐसा कहना शास्त्रानुसार बन सकता है तथा यह बात भी सर्व मान्य हो सकती है सो तो नहीं तो फिर श्रीजगत्चंद्रसूरिजी की पहिलेकी शिथिलाचारकी अशुद्धदीक्षाको (मूलमें पहिले वडगच्छके थे इसको ) आगे करके दूसरीवार चैत्रवालगच्छ में शुद्धदीक्षा लो उससे परंपरा मिलाना छोड़ करके श्रीवड़गच्छसे इन्होंकी परंपरा मिलाते हुए श्रीदेवेन्द्र सूरिजी वगैरहको श्रीवडगच्छके शिथिलाचारियोंके शिष्य होनेका
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