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अथ जेकर प्रमोद विजयजीके गुरुभी संयमी होते तब तो रत्नविजयजी विना दीक्षाके लीयांभी क्रिया उद्धार करते तोभी, यथार्थ होता परन्तु रत्नविजयजीको गुरुपरंपरा तो बहु पेढीयोंसें संयमरहित थी इस वास्ते जेकर रत्नविजयजी आत्महितार्थी होवे तो, इनको पक्षपात छोड़के अवश्यमेव किसी संयमी गुरु समीपे दीक्षा लेके क्रिया उद्धार करणा चाहिये ।
न्यायांभो निधिजीके उपरोक्त लेखसे अच्छी तरहसे सिद्ध हो चुका, कि - शिथिलाचारी जिसके पास दूसरी वेर दीक्षा लेवे उसकी ही परंपरामें वो गिना जावे - नतु पहिलेको, बस ! इसीके अनुसार श्रीजिनवल्लभसूरिजी पहिले वाचनाचार्य गणी पदमें कुर्च्चपुरीय गच्छके शिथिलाचारी द्रव्यलिंगि चैत्यवासी श्रीजिनेश्वरसूरि नामा आचार्यके शिष्यथे सो उन चैत्यवासी गुरुने इनको न्याय, व्याकरण, छंद, काव्य, ज्योतिष, वगैहर बहुत शास्त्रोंका अध्ययन कराकर अच्छी बुद्धि और उत्तम लक्षणों वाले भविष्य में शासन प्रभावक जानकरके श्रीजिनवल्लभजीको वाचनाचायं गणिकी पदवी देकर सुप्रसिद्ध श्रीनवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरिजी को जैन शास्त्रोंके ज्ञाता समझके इन महाराजके पास जैनसूत्रार्थीको गुरुगम्यतासे धारणा करनेके लिये वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणी जीको भेजे सो श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजने भी इनको उत्तम बुद्धिवाले योग्य पुरुष जानकर थोडेही कालमें श्रीजैन शास्त्रोंका अध्ययन करा दिया और श्रीजिनाज्ञाभंगसे संसार वढानेवाला चैत्यवास ( शिथिलाचारको ) छोड़कर क्रिया उद्धारसे शुद्ध संयमपूर्वक आत्मकल्याण करनेका उपदेश भी दिया सो उपदेश श्रीजिनवल्लभगणीजीने मान्यकिया और अपने चैत्यवासी गुरुकी आज्ञा लेकर श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज के पास उपसम्पत् याने क्रिया उद्धार किया फिरसे दीक्षाली
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