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[ ६७ 1 लिखा, सो यह पाठ है.॥ क्रमशश्चैत्रावालक, गच्छे कविराजराजिनभसीव ॥ श्रीभुवनचन्द्रसूरिगुरुरुदियाय प्रवरतेजाः॥४॥ तस्य विनेयः प्रसमै कमंदिरं देवभद्रगणि पूज्यः॥ शूचिसमयकनक निकषो, बभूव भूविदितभूरिगुणः ॥ ५ ॥ तत्पादपद्मभृगा, निस्संगाश्चङ्गतुङ्गसंवेगाः॥ संजनित शुद्धबोधाः, जगति जगचंद्रसूरिवराः॥६॥ तेषामुभौ विनेयो, श्रीमान् देवेंद्रसूरिरित्याद्यः॥ श्री विजयचन्द्रसूरिद्वितीयकोऽद्वैतकीर्तिभरः ॥ ७ ॥ स्वान्ययो रुपकाराय, श्रीमद्देवेंद्रसूरिणा ॥ धर्नरत्नस्य टीकेयं, मुखबोधा विनिर्ममे ॥ ८ ॥ इत्यादि. इस वास्ते भव भीरु पुरुषांकों अभिमान नहीं होता है, तिनकू तो श्रीवीतरागकी आज्ञा आराधनेकी अभिलाषा होती है, तब रत्नविजयजी और धनविजयजी यह दोनु जेकर भवभीरु है, तो इनकोंभी किसी संयमी मुनिके पास फेरके चारित्रोपसंपत् अर्थात् दीक्षा लेनी चाहिये, क्योंके फेरके दीक्षा लेनेसें एकतो अभिमान दूर होजावेगा, और दूसरा आप साधु नहीं है तोभी लोकोंकों हम साधु है ऐसा कहना पड़ता है यह मिथ्या भाषण रूप दूषणसेंभी बच जायगे, और तीसरा जो कोइ भोले श्रावक इनकों साधु करके मानता है, उन आवकोंके मिथ्यात्वभी दूर हो जावेगा, इत्यादि बहुत गुण उत्पन्न होवेंगे जेकर रत्नविजय जी धनवीजयजी आत्मार्थी है तो यह हमारा कहना परमो पकाररूंप जानके अवश्यही स्वीकार करेंगे। ... ___ यह फेरके दीक्षा उपसंपत् करनेका जिस माफक जैनशास्त्रोमें जगे जगे लिखे हैं, तिसि माफक हम इनोके हितके वास्ते कुछ आप श्रावकोंकों कहते है। तथाच जीवानुशासनवृत्ती श्रीदेवसूरिभिः प्रोक्तं ॥ यदि पुनर्गच्छो गुरुश्च सर्वथा निजगुण विकलोभवति तत आगमोल विधिना त्यजनीयः परं कालापेक्षया
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