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पर इनही श्रीखरतर गच्छ में श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराज हुए हैं इसलिये सं० १२०४ में इन महाराजसे खरतर उत्पत्तिका लिखना न्यायांभोनिधिजोका महा मिथ्या है इस बात में सब शङ्काओं का निवारण पूर्वक शास्त्र प्रमाणों सहित विस्तार से निर्णय " आत्मत्र मोच्छ ेदन भानुः” नामा ग्रन्थ में अच्छी तरहने छप गया है इसलिये यहां पर विशेष लिखनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। तोभी इसका संक्षेपसे खुलासा आगे लिखा जावेगा,
और न्यायां भोनिधिजीने श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज के ऊपर श्री वीरप्रभुके षट् कल्याणक प्ररूपणका दोष लगाया सोतो न्यायांभोनिधिजीके मिथ्यात्वकी भ्रांतिका भेद पाठकगण उपरोक्त लेखसे स्वयं समझ लेवेंगे, परन्तु श्रीजिनवल्लभसूरिजीको कुर्च पुरीयगच्छके लिखे सोतो न्यायांभोनिधिजीनेखास अपने नाम को ही लगाया है और अपने गुरु आवलीके जैसी श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध मर्यादाकी गपोल खीचडीका बर्ताव में श्रीजिनवल्लभसूरिजी को भी ठहराकर श्रीखरतर गच्छ में भी श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध मर्यादा स्थापन करनेका न्यायांभोनिधिजीने चाहा सो भी बड़ी भूल करो क्योंकि श्रीजैन शास्त्रोंकी मर्यादानुसार तो किसी भी गच्छका कोई भी शिथिलाचारीको अपने गच्छ में क्रियापात्र शुद्ध संयमीका योग न मिले और उसके क्रिया उद्धार करके शुद्ध संयमसे अपनी आत्म कल्याणकी पूर्ण अभिलाषा होवे तो किसी भी अन्य गच्छके शुद्ध संयमीके पास क्रिया उद्धार करे याने उनके पास फिरसे दीक्षा लेकर उनकोही गुरुमाने और उन क्रियाउद्धार करनेवालेकी पाट परम्पराभी पहिले केशिथिला चारि गुरुओंके साथ न मिलाकर जिसके पास किया उद्धार किया होवे उन्होंको परम्परामें अपनी पाट परम्परा मिलावे सो वोही उनका गच्छ और गुरु परम्परा मानी जावे परन्तु पहि
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