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मिथ्या लेखपर प्रथम तो मेरेको इतनाही कहना है कि न्यायांभोनिधिजीने अपनी गुरुआवलीके सम्बंध, श्रीसिद्धसेनदिवाकरजी वगैरह प्रभावक पुरुषों का कथन करने में उन्होंके गच्छका और गुरुका नाम खुलासा लिखा है तैसेही श्रीनवांगी वृत्तिकार सुप्रसिद्ध श्रीअभयदेवसूरिजीके कथन करने में भी इन महाराजके गुरुका और गच्छका नाम भी अवश्य लिखना उचित था, सो न लिखा यह तो प्रगटही मायाचारीका कारण है क्योंकि यह महाराज श्रीखरतर गच्छमें हुए हैं, सो अहिलपुर पट्टणमें श्रीदुर्लभ राजाने श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजको खरतर विरुद दिया उसदिनसे इन महाराजकी समुदायवाले खरतर गच्छके कहलाये । सो इनमहाराजकेही शिष्य श्रीनवांगीतिकार श्रीअभय देवसूरिजी थे परन्तु इनमहाराजके वड़ेगुरुभाई श्रीजिनचन्द्र सूरिजी थे सो उन्होंको पोजिनेस्वरमूरिजीके पाटपर विराजमान किये थे और श्रीजिनचन्द्रमूरिजीके पाटपर यह श्रीनवांगी त्तिकार श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज विराजमान हुए थे, और न्यायांभोनिधिजीने इसी जैनतत्वादर्श के पृष्ट ५७४ में खरतर गच्छसे द्वेषकरके प्रत्यक्षमिथ्या सं० १२०४ में खरतर उत्पत्ति लिखाहै, इसलिये अपने इस मायाचरीके मिथ्या लेखकी पोल न खुलनेके लिये श्रोअभयदेवमूरिजीको खरतरगच्छके लिखते न्यांभोनिधिजीको लज्जा आई होगी इससे इन महाराजके गच्छका नाम छिपा दिया सो यह मायाचारीके सिवाय और क्या होगा इसको विवेकी पाठकगण स्वयं विचार लेवेगें।। __ और श्रोजिनेश्वरसूरिजीने श्रीदुर्लभराजाकी पाठांतरे श्री भीमराजाको राजसभा, चैत्यवासियोंको धर्मवादमें जित लिये, आप विशेष सच्चे ( अतिशय खरे ) रहे उससे राजाने खरतर विरुद दिया है सो इन महाराजके पांववो पिढो (पह)
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