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[ ६५३ ] उन्होंको श्रीजैनशास्त्रोंके नहीं जानने वाले अज्ञानी और जैनाभास कहते है परन्तु उन्होंको अपने लोग उन शास्त्रोंके ज्ञाता उनके बांचनेवाले और जैनोपने में नहीं गिनते हैं, सो इसीमुजब निन्हव भी हृदयसे भावपूर्वक साधुपनेको शास्त्रानुसार सब क्रिया करताहै तथा शास्त्रों को बांचनेवाला उन शास्त्रोंके ज्ञाता और पूर्ण वैराग्यमय शास्त्रोक्त उपदेश भी बहुत लोगोंको सुनाताहै तो भी शास्त्रकारों ने उनको असाधु अज्ञानी मिथ्यात्वी कहके उनका उपदेश सुननेको मनाई करो और उनको बंदन पूजन करना तो क्या परन्तु उनका मुंह देखना दर्शन मात्रभी बर्जन किया, है उसी तरहसे ऊपरके लेखमें, मैने तथा टीका कारने जो बाक्य कथन किये हैं सो भाव सहित उसी मुजब श्रद्धा प्ररूपणा वर्ताव नहीं करने वालों संबन्धी जानने चाहिये परन्तु द्रव्यसे बिनाश्रद्धाके अक्षर मात्रको बांचने वालों सम्बन्धी नहीं इस बातको विशेषतासे तो विवेकी पाठक गण स्वयं विचार लेवेंगे।
और भी छ कल्याणक निषेध करनेके लिये न्यायांभोनिधिजीने अपने बनाये “जैन तत्वादर्श"के १२ वें परिच्छेदमें अपनी गुरुआवलीके संबन्ध मिथ्यात्वके उदयसे भद्रजीदोंको भरमानेके लिये मायारत्ति पूर्वक प्रत्यक्ष मिथ्या गप्प लिखा है उसका भी अब यहां इस अवसर पर निर्णय करना उचित समझ कर करता हूं सो प्रथम वारका छपा हिन्दी “जैन सत्वादशं"के पृष्ठ ५७३ की पंक्ति ८ से ११ तक ऐसा लिखा है "विक्रमसे (११३५) वर्ष पीछै, कोई कहता है ( ११३९) वर्ष पीछे नवांग त्ति करने वाला अभयदेवसूरि स्वर्गवास हुए तथा कुर्चपुर गच्छीय चैत्यवाशी जिनेवरसूरि शिष्य श्रीजिनवल्लभमूरिने चित्रकूटमें श्री महावीरके षट् कल्याणक प्ररूपे” न्यायांभो
निधिजीके इस ऊपरके अज्ञानता वाले मायाचारीके प्रत्यक्ष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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