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नजरों (आंखों) से प्रत्यक्षपने देखते हैं तथा घास काष्टादिलानेको खास पहाड़पर भी जाते हैं तो क्या श्रीवीरविजयजी के उपरोक्त स्तवनमें कथन किये हुए वाक्यको आपलोग झूठा मानोगे सो भी नहीं, किन्तु यहां तो भावसहितयात्रा करनेके लिये गिरिराज तरफ चलनेवालेके हजारकोडी भवोंके पापकटने सम्बन्धी तथा अन्तर के ज्ञानचक्षुसे पापी और अभव्य इस तीर्थ को न देखसके, याने भाव सहित दर्शन नहीं करे। ऐसा तात्पर्यार्थ उपर के स्तवन बनानेवालेका समझना चाहिये, तैसेही उपरोक्त टीकाकार के वाक्य में तथा मेरे लेखमें भी उपरोक्त बातों सम्बन्धी उपरोक्तादि शास्त्रपाठोंके सम्बन्धमें गुरुगम्यताका अनुभवकी विवेक बुद्धिसे उन शास्त्रकारों के मुख्य तात्पर्यार्थके रहस्यको भाव पूर्वक समझने का समझना चाहिये, नतु उपयोग शुन्यताकी अज्ञानता पूर्वक द्रव्यसे अक्षरमात्र वांचने वालों सम्बन्धी क्योंकि द्रव्यसे अक्षरमात्र तो छ कल्याणक चैत्यकीविधि सामायिक में प्रथम करे मिभंते पीछे इरियावही और अधिक मास गिनती में प्रमाण करने वगैरह बातों सम्बन्धी, श्रीकल्पसूत्र श्रीचन्द्र प्रज्ञप्ति श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति श्रोनिशीथचूर्णि श्री आवश्यकचर्णि वगैरह शास्त्रोंके पाठोंको वांचने वाले सुनने वाले वे चैत्यवासी लोग थे परन्तु भावसे उपयोग पूर्वक वांचकर उनके भावार्थको ग्रहण करके उसी मुजब श्रद्धासे वर्ताव करने वाले नही थे, वैसेही वोही बात वर्तमानकाल में श्रीतपगच्छकी कितनीक कदाग्रही समुदायमें देखने में आती है क्योंकि ये लोग भी द्रव्यसे तो "तेण कालेण तेण' समयेण समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे हुत्था, साइणा परिनिव्वुड़े " इस तरह श्रीमहावीर स्वामीके छ कल्याणक सम्बन्धी श्रीकल्पसूत्र के खास मूल पाठको हरवर्ष पर्युषणापर्व में वांचते हैं तथा श्रीनिशीथच र्णि श्रीआवश्यकच णि वगैरह के
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