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[ ६५ ] योऽन्यो विशिष्टतरस्तस्योपसंपद्ग्राह्या न पुनः स्वतंत्रः स्थातव्यमिति हृदयं ॥ इति श्रीजीवानुशासनवृत्तौ। इसकी भाषा लिखते हैं। जेकर गच्छ और गुरु यह दोनों सर्वथा निजगुण करके विकल होवे तो, आगमोक्त विधि करके त्यागने योग्य है, परं कालकी अपेक्षायें अन्य कोइ विशिष्टतर गुणवान संयमी होवे, तिस समीपें चारित्र उपसंपत् अर्थात् पुनर्दीक्षा ग्रहण करनी परन्तु उपसम्पदाके लीया विना स्वतंत्र अर्थात् गुरुके विना रहणा नहीं इस कहनेका तात्पर्यार्थ यह है के जो कोई शिथिलाचारी असंयमी क्रिया उद्धार करे सो अवश्यमेव संयमी गुरुके पास फेरके दीक्षा लेवे। इस हेतुसे रत्नविजयजी
और धनविजयजीकों उचित है के प्रथम किसी संयमी गुरुके पास दीक्षा लेकर पीछे क्रिया उद्धार करे तो आगमकी आज्ञा भङ्ग रूप दूषणसे बच जावे और इनकों साधु माननेवाले श्रावकोंका मिथ्यात्वभी दूर हो जावे, क्योंके असाधुकों साधु मानना यह मिथ्यात्व है और विना चारित्र उपसंपदा अर्थात् दीक्षाके लीये कदापि जैनमतके शास्त्रमें साधुपणा नहीं माना है। ___ तथा महानिशीथके तीसरे अध्ययनमें ऐसा पाठ है ॥ सत्तद्व गुरुपरंपरा कुसीले ॥ एग दु ति परंपरा कुसीले ॥ इस पाठका हमारे पूर्वाचार्योने ऐसा अर्थ करा है, इहां दो विकल्प कथन करनेसे ऐसा मालुम होता है के एक दो तीन गुरु परंपरा तक कुशील शिथिलाचारीके हूएभी साधु समाचारी सर्वथा उच्छिन्न नहीं होती है, तिस वास्ते जेकर कोइ क्रिया उद्धार करे तदा अन्य संभोगी साधुके पाससे चारित्र उपसंपदा विना दीक्षाके लीयांभी क्रिया उद्धार हो शक्का है, और चोथी पेढीसें लेकर उपरांत जो शिथिलाचारी क्रिया उद्धार करे तो अवश्यमेव चारित्र उपसंपदा अर्थात् दीक्षा लेकेही क्रिया उद्धार करे, अन्यथा नही। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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