________________
[ ६६० ] और इनही गुरुमहाराजके चरणकमलकी सेवा करते हुए महाराज के पासही रहने लगे पीछे कालान्तरमें श्रीअभयदेवसूरिजीका देवलोक हुए बाद, संसारका कारणभूत उत्सूत्ररूप चैत्यवासकी अविधिका निवारण पूर्वक श्रीजिनवल्लभगणीजीने देशदेशान्तरोमें विहार करके बहुत भव्यजीवोंका उपकार किया और अनुक्रमसे विहार करते हुए मेवाड चीतोड़नगरमें पधारे सो वहां भी चैत्य वासियोंकी उत्सूत्रता और अविधिको बातोंका निषेध पूर्वक श्रीजिनाज्ञानुसार शास्त्र प्रमाण सहित विधि मार्गको सत्य बातोंको सबके सामने भव्य जीवोंको श्रीजिनाज्ञानुसार विधि मार्गकी सत्य बातोंकी प्राप्ति होनेके लिये प्रगट ( प्रकाशित ) करी सोतो हमने पहलेही लिख दिया है और पीछे चीतोड नगरमें ही इन महाराजको ( श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजके पहिलेके कथनानुसार श्रीप्रशन्नचन्द्राचार्यजीके कहने मुजब ) श्रीदेवभद्राचार्यजीने श्रीजिनवल्लभगणीजीको सूरि पद देकर श्री अभयदेवसूरिजीके पहपर स्थापित किये और श्रीजिनवल्लभ सूरिजी नाम रक्खा इसलिये श्रीजिनवल्लभसूरिजी श्रीअभयदेव सूरिजी महाराजके पट्टधर शिष्य श्रीखरतरगच्छमे ठहरे सो यह बात भी श्रीखरतरगच्छकी पहावलियों में तथा पूर्वाचार्यो के चरित्रों में और श्रीतपगच्छके पूर्वाचार्यो के बनाये ग्रन्थों में तथा अन्य भी इतिहासिक ग्रन्थ वगैरह बहुत जगहोंपर प्रसिद्ध है तिसपर भी न्यायांभोनिधिजी हो करके भी अपने गच्छकदाग्रहके मिथ्याहठवाद रूप अभिनिवेशिकसे श्रीजिनवल्लभसूरिजीको कुर्चपुरीय गच्छके चैत्यवासी श्रीजिनेवरसूरिजीके शिष्य लिख दिये सो श्रीजिनाज्ञाका भङ्ग कारक प्रत्यक्षपने जैन शास्त्रोंकी मर्यादा विरुद्ध और सर्वथा मिथ्या है इस बातको विशेषतासे विवेकी तत्वज पाठकगण स्वयं विचार सकते हैंShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com