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! ६५२ ] शास्त्रपाठोंको (कालच ला रूप अधिकमास गिनती में प्रमाण तथा सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही सम्बन्धी) वांचते हैं और सुनते भी हैं परन्तु भावसे उपयोग पूर्वक वैसो श्रद्धा करके वैसाही उपदेश,और उसी मूजब वर्ताव नहीं करते इस लिये उपरोक्त बातों सम्बन्धी उपरोक्तादिशास्त्रोंके पाठोंको देखने वांचने सुनने भी नहीं आये जैसे हैं इसलिये उपरमें मेरे लिखे वाक्य तथा टीकाकारके कथन किये हुए वाक्य सत्य है उससे अपनी अज्ञानतासे उसके रहस्यको समझे बिना किसीके कहनेसे मिथ्या नहीं हो सकते हैं।
ओर कितनेही ढिये तथा तेरापन्थी लोग भी उपयोग मून्य द्रव्यसे तो श्रीरायप्रशेणी श्रीजीवाभिगमजी श्रीज्ञाताजी श्रीभगवतीजी वगैरह खास मूल सूत्रों के पाठोंके अक्षरकों तो बांचते हैं तथा सुनते हैं और लोगोंको भी सुनाते हैं उसमें श्रीजिनेश्वर भगवान्की प्रतिमाओंको श्रीजिनसमान कथन करी है तथा उसको बंदन पूजन करना कहा है और उसके बन्दन पूजनके प्रत्यक्ष प्रमाण भी उन मूत्रों में मौजूद है सोई सूत्र पाठ वे दढिये और तेरापंथी लोगभी बांचते हैं तिसपरभी उन दढिये, तेरेपन्धियोंकी उस .बातमें भावसे शुद्धश्रद्धा और प्ररूपणा नहीं किन्तु विशेष मिथ्यात्वके उदयसे कुयुक्तियोके झूठे आलम्बनोंसे मूत्र पाठोंकोंथापन करके और उसका उलटा मन कल्पनाका झूठा अर्थ भद्रजीवोंको सुनाते हैं तथा द्रव्यसे साधुपनेकी आवकपनेकी प्रतिक्रमण, पडिलेहणा, तपश्चर्यादि भी करके अपने में जैनीपना मानते हैं परन्तुं श्रीजिनाज्ञाकी विराधना करके आगमोंको तथा उनकी व्याख्याओंको और पूर्वाचार्यों को उत्थापते हुए उन्होंकी
और श्रीजिन प्रतिमाजीकी निन्दा करते हुए शास्त्र मर्यादासे विरुद्ध मम मानी बाल क्रिया अज्ञान कष्ट करते हैं इसलिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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