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लगते हैं परन्तु कल्याण करवपनेसे तो कोई भी निषेध नहीं हो सकता है क्योंकि कारण भावसे ब्राह्मण कुलमें भगवान्के उत्पन्न होने में उपरके विशेषण लगते भी प्रथम च्यवन कल्याणकत्वपना माना जाता है तैमे हो कार्य भावसे त्रिशलामाताके उदर में पधारने रूप गर्भापहारको भी ऊपरके विशेषण लगते भी दूसरा च्यवन कल्याणकत्वपना मानने में कुछ भी वितंडावाद नहीं चल सकता है तथापि गच्छकदाग्रहके हठवादसे जपरके विशेषण त्रिशलामाताके उदरमें पधारनेको लगाके कल्याणकत्वपनेसे निषेध करनेसे तो ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होमेको भी उपरके विशेषण लगके कल्याणकत्वपना निषेध हो जावेगा तबतो प्रथम च्यवन और गर्भापहार रूप दूसरा च्यवन यह दोनों कल्याणक निषेध होनेसे बाकी श्रीवीरप्रभुके च्यारही कल्याणक रह जानेका तपगच्छीय विद्वत्ताभास कदाहियोंकी कल्पनाका ११ वा एक अपूर्व आश्चर्य पंचमकालमें भी होजा. वेगा उसीको श्रीजिनेश्वर भगवानकी आज्ञाके आराधक विवेकीतत्वज्ञ तो (ऐसी कदाग्रहकी कल्पित बातको) कदापि नहीं मान सकते हैं परन्तु श्रीजिन आज्ञा विराधक गड्डरीह प्रवाही विवेक शून्योंकी तो बात ही जूदी है और उपरके विशेषणोंका कारण कार्यभाव दोनों में विद्यमान होते भी एकको कल्याणक मानना और दूसरेको कल्याणकत्वपनेसे निषेध करना सो गच्छ कदाग्रहका प्रत्यक्ष अन्याय अंध परंपरा वालोंके सिवाय विवेकी तत्वज्ञोंका तो कदापि न होगा सो भी पाठकगण स्वयं विचार लेना
और तीसरा यह है कि-मोक्षाभिलाषी आत्मार्थी भव्य जीवोंको कुल मदादि कर्मविटंबनाने छोड़ा करके प्रमाद रहित वासे मोक्ष मार्ग प्रवर्तानेवाला गर्भापहारनप श्रीवीरमभका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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