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[६६६ ] राजके द्वेषी तथा श्रीवीरप्रभुके गर्भापहारके निन्दक भारीकर्म पूर्णअज्ञानी विवेकशून्य गच्छकदाग्रहीके सिवाय आत्मार्थी विवेकी तत्वज्ञ तो नवीन प्रगट करनेके बहाने भोले जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें कदापि नहीं गेरेंगे और इसका विशेष निर्णय धर्मसागरजीने धर्म धूर्ताई की ठगाईसे श्रीगणधरसाई शतककी सावत्तिके अधूरे पाठसे भोले जीवोंको भ्रममें गेरे हैं जिसकी समीक्षा आगे होगी वहां लिखने में आवेगा___ अब देखिये आत्मारामजी इतने बड़े सुप्रसिद्ध विद्वान् होकरके भी खास अपने बनाये जैनतत्वादर्शमें प्रभावक चरित्रादि शास्त्रानुसार श्रीसिद्धसेन दिवाकरसूरिजीने उज्जेणी नगरीमें भीऐवती पाखनाथजीकी प्रतिमाको प्रगट करी । ऐसा खुलासा लिखते हैं उसी तरहसे ही श्रीजिनवल्लभ सूरिजीने भी चीतोडमें छठे कल्याणकको प्रगट किया सो तो शास्त्रानुसार को कालयोग्यसे दबीहुई लुप्त बातको प्रगट करनेका प्रत्यक्षही अर्थ है नतु शास्त्रप्रमाण बिना अपनी मति कल्पनासे, सो-इस बातको आत्मारामजी तो क्या परन्तु हरेक विवेकी विद्वान्जन तो स्वयं ही जान सकते हैं तथापि आत्मारामजीने भोले जीवोंको अपने भ्रमचक्रमें मेरनेके लिये दबीहुई लुप्तभावकी प्राचीन बातको प्रगट करनेके अर्थको बदलकरके अपनी मति कल्पनासे नवीन प्रकट करने रूपी उत्सूत्र प्ररूपणाका मतलब बालजीवोंको दिखाया सो अपने विशेषणको लज्जानेवाली अचानताकी या अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको मायाचारी कही जावे या नहीं इसको विवेकी तत्वतजन स्वयं विचार लेवेगे :
और खरतर गच्छमें गणधर साढे शतककी टीका परममान्य होनेका आत्मारामजीने लिखा सो भी मायाचारीका ही कारण है कि सरसर गच्छवालोंके गणधर सार्द्धशतककी
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