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[ ६२८ ] लंबे लंबे विशेषण धारण करने वाले हो करके भी अन्धपरंपरासे चलाये जाते हैं और तत्व दृष्टिसे सत्यासत्यका निर्णय नहीं करते हैं सो भी बड़ी शर्मकी बात है। __ और आगे फिर भी लिखा है कि (अब इस गणधरसाई शतकके पाठसे आपही विचारिये कि जब आपके बड़े श्रीजिनवल्लभसूरिजीने पूर्वाचार्यो को सिद्धान्तके रहस्यको न जाननेवाले ठहराके और विद्यमान आचार्यो से निरपेक्ष होकर यह छठा कल्याणक नवीन कथन किया तो फिर किस वास्ते सिद्धान्तका झूठा नाम लेके लोगोंको भरममें गेरते हो) ऊपरके इस लेखपर भी मेरेको इतानाही कहना है कि जब उपरोक पाठमें प्रगटपने “आगमोतः षष्ट कल्याणकः" याने मूल आगमोंमें छठे कल्याणकका कथन किया हुआ है ऐसे अक्षर खुलासाके साथ सूर्यकी तरह प्रकाश कर रहे हैं तिसपर भी उसको न समझकर विपरीत रीतिसे निषेध करनेवालोंकों आगम सिद्धान्तके रहस्यको न जाननेवाले अज्ञानी कहे जावें तो इसमें कौनसी बुरी बात हुई सो तो आप भी इस बातमें इनकार नहीं कर सकते, तथा “योनशेषसूरीणां" यह बाक्य तो उपरोक्त चेत्यवासियोंकी-अज्ञानता, अविधि, उत्सूत्र प्ररूपणा करने तथा शास्त्रोक्त बातको न मानने सम्बंधी है इसलिये श्रीजिनवल्लभसूरिजी सम्बन्धी आक्षेप रूप ऊपरका आपका लिखना अज्ञानताका सूचक व्यर्थ है। और आगमोक्त बातको भव्यजीवोंके आगे गांव गांव नगर नगर प्रति रोजीना प्रकाशित करना सो तो श्रीतीर्थंकर गणधर पूर्वधर पूर्वाचार्य और सब साधुओंका खास कर्तव्यरूप कार्य है इसके अनुसार इन महाराजने भी चैत्यवासियोंके अन्धपरम्पराके कदाग्रहको हटानेके लिये अपनी हिम्मत बहादुरी विद्वत्ताकी सामर्थताले
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