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[ ६३५ ] लिखा है और पृष्ठ २५४।२५५ में भी कितने ही अभाषणीय शब्द लिख दिये हैं अब विवेकी निष्पक्षपाती पाठक गणको न्यायपूर्वक धर्मबुद्धिसे विचार करना चाहिये कि न्यायांभोनिधिजीने ढढकोंके लिये कैसे कैसे शब्द लिख दिये जिसपर तो कोई भी कुविकल्प किसीके दिलमें न उठा और श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजने चैत्यवासियोंके कल्पित आलंबनोंका हठवादके मिथ्यात्वकी उत्सूत्रता और स्वार्थसिद्धकी प्रमादताका अभिनिवेशिकको हटानेके लिये अपने शरीर प्रकृति स्वभावकी चेष्टासे अपने कथनमें शास्त्रोक्त प्रमाणोंकी सत्य दृढता भव्य जीवोको दिखाकर श्रीजिनाज्ञाकी प्राप्ति करानेके लिये शास्त्रोक्त बातोंको न समझने वाले और अविधिसे उन्मार्ग चलानेवाले उन चैत्यवासियोंको सिद्धान्तके रहस्यको न जाननेवाले ठहराकर खम्भा ठोकते हुऐ सत्यबातोंको सबके सामने प्रकाशित करी, जिसपर अपना कुविकल्प उठाकर भद्रजीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरनेके लिये चैत्यवासियों सम्बन्धी शास्त्रकारके अभिप्रायके अर्थकी जगहपर सब पूर्वाचार्यो' को लिखके विद्यमान गीतार्थ शुद्ध उपदेश देने वाले आत्मार्थी सब आचार्यों को लिख दिया और आगमोक्त छठे कल्याणकको जबराइसे खंभे ठोककर नवीन उत्सूत्र प्ररूपणरूप छठे कल्याणक कोठहरा दिया हा अति खेदः ॥ “खलः सरस्व मात्राणि, पर छिद्राणि पश्यति ॥ आत्मनो बिल्वमात्राणि, पश्यन्नपिन पश्यति" की तरह करके व्यर्थ ही निजपरके संसार वढानेके लिये श्रीजिनवमसूरिजी महाराजके कथमके रहस्यका तात्पर्यार्थ के भावार्थको पूर्वापर सम्बन्ध सहित समझ विना अपनी विद्वत्ताको बहा दुरी दृष्टिरागी विवेकशून्य अन्धभक्तों में
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