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[ ६४५ ] श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंकी तथा अपने पूर्वाधार्यो की आशातना करतेहुए गच्छकदाग्रहके अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके उदयसे दीर्घसंसार और दुल भबोधिपनेका कारण करने जैसा महान् अनर्थ करते हुए लज्जा भी नहीं आई हा अतीवखेद ? खेद ? महा खेद ?? जो विद्वत्ताके अभिमान रूपी अजीर्णतासे श्रीतीर्थंकर महाराजोंकी कथन करीहुई आगमोक्त छठे कल्याणककी सत्यबातको अन्तरगाढमिथ्यात्वीके सिवाय तो जडता कोई भी जैनी नाम धरानेवाले भी कदापि न कहेगे इसबातको पक्षपात छोडकर तत्वदूष्टिसे अच्छीतरहसे विचारनी चाहिये।
और श्रीजिनाज्ञाभिलाषी सत्यग्राही विवेकी सज्जनोंसे मेरा यही कहना है कि "स्कंधास्फालन पूर्वक साधितः” तथा “यो न शेष सूरीणां" इत्यादि इन दोनों वाक्योंपर न्यायां भोनिधिजीको कुविकल्प उठा उससे उलटा अर्थ लिख कर भद्रजीवोंको भ्रममें गेरे जिसका निर्णय उपरमें हमने शास्त्रकारोंके अभिप्राय सहित पूर्वापर पाठ सम्बंधी भावार्थ सहित उन्होंकी कुयुक्ति और अन्यायके लेखकी समीक्षा करके अच्छी तरहसे खुलासालिखदियाहै जिससे जो अब आत्मार्थीहोगा सोतो व्यर्थ अन्यायके आग्रहमें न पडकर, अपनी अंधपरंपराकी कुश्रद्धाके भ्रमको त्याग करने में कदापि बिलंब न करेगा परन्तु गाढ अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी दीर्घ संसारी जैनी नामधारी इहलोककी पूज्यता मान्यता शोभादृष्टिरागके गाढबन्धनसे बन्धेहुए होंगे सो सत्यबातग्रहण करनेके बदले भद्रजीवोंको कुयुक्तियोंसे विशेष म भ्रमावेतो भी बहुत अच्छा होवेगा। भद्रजीवोंके कर्म बंधनके हेतु न होंगे।
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